Wednesday 24 April 2013

एक लंगोटी वारौ

एक लंगोटी वारौ

महात्मा गांधी एक लोकोत्तर पुरुष थे जिनके स्वावलंबन, चरखा, स्वदेशी वस्तुओं का व्यवहार, सेवा, अभय, निराभिमानता, समता,अपरिग्रह, अनासक्ति, सत्य  और अहिंसा के मंत्रों से समूचा देश और विश्व मानवता तरंगित है। गांधी पर देश के अवाम को असंदिग्ध भरोसा था उन्होंने जब भी जिन रास्तों की ओर इशारा किया देश के करोड़ों-करोड़जन उन राहें पर निर्भय निकल पड़े। महात्मा गांधी स्वाधीनता संघर्ष के ऐतिहासिक तथा निर्णायक दौर के अप्रतिम नायक रहे हैं और साथ ही साथ भारतीय लोकतंत्र और स्वराज के रचनाकार भी। इसीलिए कोई आधी सदी गुजर जाने के बावजूद वे लोक मानस से विस्मृत नहीं नहीं हुए हैं बल्कि समय बीतने के साथ-साथ वे संभवतः पहिले से भी अधिक संदेह और आत्मीय रूप में प्रकट हो रहे हैं 

महात्मा गांधी स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अनेक कवि, लेखकों, विचारकों के लिए प्रेरणास्पद रहे है। लोक कवि श्री माधव शुक्ल मनोज भी गांधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन के एक सिपाही रहे हैं और बुन्देलखण्ड के गांवों में गांधी जी के सिद्धान्तों और संदेशों को पहुंचाने का प्रयास करते रहे हैं। एक लंगोटी वारौ कविता पुस्तक श्री माधव शुक्ल मनोज की चैपालों, मंडलियों, सौबतों में सुनी-गुनी कविताओं का संकलन है।

आशा है कि श्री माधव शुक्ल मनोज की कविताओं के माध्यम से गांधी जी की महिमा और उनके मंत्रों का पुनसर्मरण कर पाने में मदद मिलेगी। 

श्री राम तिवारी 
संचालक
स्वराज संस्थान संचालनालय
भोपाल
2001 






मैनें किशोर अवस्था में गीत-कविताएं लिखना प्रारंभ की। सन् 1942 में मैंने भूमिगत गांधी जी के सत्याग्रह-आन्दोलन में भाग लिया। दुर्भाग्य कि मैं बन्दी नहीं बनाया गया। उसी समय मैंने लोकबद्ध शैली में बुन्देली गीत लिखे। जिन्हें समयानुसार कवि सम्मेलनों के मंच पर गाया। एक शिक्षक होकर उन्हें गांव की चैपाल मंे भी गुंजाया। ग्रामीण लोगों की रामायण मंडलियों-सौबतों में बैठकर रामकथा, भजन, कीर्तन के साथ इन गीतों को स्वरबद्ध सुनाते हुए गांधी जी के सिद्धान्तों, उनकी जनसेवी भावनाओं एवं देश भक्ति को बुन्देलखण्ड के गांव में उजागर करता रहा हूं।

माधव शुक्ल मनोज




कविताऐ 





गांधी जू के जे बंदरा।।

गांधी जी के जे बरा।
आंख-कान मूंदे दो देखो
एक रखे-मों पे अंगुरि।
   सतपथकी जे बातें भैया
   इन्हें नें तुम मारो पथरा
   गांधी जू के जे बंदरा।।

अच्छो देखो-सुनो भी अच्छो
कड़वी बानी बोलौ ने।
   शीतल-शान्त करो मना सबकौ-
   रखो ने कोउ पै अंगरा।
   गांधी जू के जे बंदरा।।

सत्य अहिंसा-समता के जो
तीन तिलंगा बैठे हैं
   समझो इन्हें और समझाओ
   बनो नें मैं-मैं के बुकरा।
   गांधी जू के जे बंदरा।।

Friday 19 April 2013

राई लोक नृत्य पर मोनोग्राफ

माधव शुक्ल मनोज 

बुन्देलखण्ड के राई लोक नृत्य पर मोनोग्राफ


माधव शुक्ल मनोज  

राई मोनोग्राफ 


राई की एक रात


राई की एक रात


माधव शुक्ल  मनोज  
बुन्देलखण्ड का लोक नृत्य 


माधव शुक्ल मनोज ने बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति को गहरे तक जाना और समझा। बुन्देलखण्ड के एकमात्र लोक अध्येता के रूप में उन्होंने बुन्देलखण्ड के 'राई नृत्य' पर शोध कार्य किया और ग्रामों से दूर और नाम से ही सामाजिकता के परे राई नृत्य और नर्तकियों को समाज में गौरवपूर्ण स्थान दिलाने का कार्य किया। आज बुन्देलखण्ड में राई एक कला का दर्जा ले चुकी है और बेड़नी एक कलाकार का। अब उसे सम्मान भी है और उसके हक का पारिश्रमिक भी। इसी परिप्रेक्ष्य में 'राई' को विदेश तक जाने का अवसर मिला और वाद्य नर्तक के रूप में कलाकारों को राज्य स्तरीय सम्मानों से भी नवाजा गया। आज राई देश का एक प्रसिद्ध, श्रृंगारपूर्ण, ओजपूर्ण श्रेष्ठ लोक नृत्य है। श्री 'मनोज' का लिखा ‘राई’ मोनोग्राफ तथा एक अन्य गीत पुस्तिका शासन द्वारा प्रकाशित किया गया है। राई को उस गावं के अंधेरे कोने से जहां नृत्य केवल मशालों के प्रकाश में ही होता था अब देश के बड़े कलामंचों तक गौरवपूर्ण प्रस्तुतियां देखने मिलती है इसका श्रेय केवल और केवल श्री माधव शुक्ल मनोज की महती चेष्ठा और सतत् उपक्रम को जाता है।

पूरी रात मशाल के प्रकाश में सुसज्जित लोक नर्तकी स्वांग, ख्याल और फागै गाती हुई ठुमक के साथ, पैरौं में धुंघरू बजाती सौ चुन्नटों वाला लहंगा फैलाती, हवा में चुनरी लहराती, नाचती है और वादक ढोल, मंजीर, मृदंग पर ताल देता है तब दर्शकों की भीड़ मुग्ध होकर वाह-वाह करने लगती है। ऐसे बुन्देलखण्ड के लोकप्रिय नृत्य को 'राई नृत्य' कहते हैं। बुन्देली साज बजाते हैं और नर्तकी के साथ भाव-विभोर होकर गाते, नाचते हैं। जहां भी यह नृत्य होता है। वहां अपने आप बिना बुलाये ग्रामवासी नर-नारी बच्चे एकत्रित हो जाते हैं। गांवों में आजकल लोक नर्तकी जिसे बेड़नी कहते हैं  ने ही इस नृत्य पर अपना आधिपत्य जमा लिया है। कुछ लोग इस नृत्य को अश्लील मानते हैं और सौबत में जाना उचित नही समझते किन्तु रसिक कला पारखी लोग अवकाश के समय में बेड़नी को नाचने के लिए आमंत्रित करते हैं और उसे मुजरा, पुरस्कार देकर उनकी नृत्य कला को सराहते हैं।

कहा जाता है कि राज गौंड शासकों के दरबारों में सुन्दर युवनियां इस नृत्य को नाच कर सरदारों और सभासदों का मनोरंजन किया करती थी। रानियां भी कभी-कभी अपनी अशांति, मन की बेचैनी दूर करने के लिए अपनी सहेलियों से राई नचवा कर उन्हें पुरस्कार देती थीं, कुछ लोगों का अनुमान है कि युद्ध लड़ते-लड़ते जब सैनिक थक जाते थे तब उनमें एक उल्लास, स्फूर्ति उत्साह भरने के लिए रास्ते में ही राई नृत्य का प्रदर्शन होता था। इस लिए इस नृत्य को ‘राही’ नृत्य भी कहा जाता है।

यह नृत्य किसी भी समय नाचा जा सकता है। पूरी रात मशालों के प्रकाश में नाचती हुई बेड़नी राई नृत्य की अनेक शैलियों का प्रदर्शन करती है। वह मथानी की भांति मंडल में विशेष रूप से नाचती है। कभी उसकी पद गति मंद होती है तो कभी तेज, वह कभी चक्र की तरह घूमती है तो कभी स्थिर होकर नाचती है।

जब मृदंग वादक के सामने पलट कर, उसके मृदग पर अपना धुंधटा से ढका शीश रख देती है और कमान की तरह लचक कर अपने लंहगे के दोनों छोरो को पकड़कर ठुमकती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ती है तो वह मोर की मुद्रा वाला सुन्दर दृश्य भारतीय गरिमा से दमकने लगता है। देश का राष्ट्रीय पक्षी मोर है। इस ओर भाव भंगिमा इंगित करती हुई बुन्देलखण्ड की लोक नर्तकी की यह नृत्य कला सचमुच प्रशंसनीय लगती है उसके अंग प्रत्यंगों की थिरकन, भाव भरी लचक बहुत ही आकर्षक होती है। जब नर्तकी नाचती हुई रसिकों के पास जाकर लोगों के हृदय तक झांकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करती हुई श्रृंगार रस के मधुर गीत इस प्रकार गाती है।

नैना बानों की चोट जी खों लगे ओई जानें
जियरा धरे ने धीर चोली के बंध टूट जांये रे
करियो ने दगा, हम तो तुमई तुम में बिगरे

बेड़नी के भी कुछ आदर्श और सिद्धान्त होते हैं जिसकी प्रशंसा अवश्य की जानी चाहिए जब कभी रसिक प्रेमी बेड़नी को चिढ़ाना चाहता है तब अपने बायें हाथ की गदेली पर नोट रखकर बार-बार दिखाते हैं तब बेड़नी को उस नोट का छूना तो दूर रहा वह अपनी नजर भी नहीं डालना चाहती। बायें हाथ का पैसा लेना वह अनुचित समझती है। वह तो मर्द की कमाई का पैसा दाहिने हाथ से ही लेना चाहती है। भले ही वह किसी का भी दस का पैसा क्यों न हो।

इस भाव विभोर नृत्य की मधुरिमा से प्रभावित होकर बुन्देली वाद्य-वादकों का मन भी अपनी सीमा को भूल जाता है और वह नर्तकी के साथ उसी नृत्य ताल में ही थिरकने लगता है। कभी टिमकी वादक, कभी मृदंग वादक प्रतिस्पर्धा (होड़) को लेकर इस 'राई लोक नृत्य' को और ही आकर्षक बना देते हैं।
राई की एक रात-माधव शुक्ल मनोज ,रामसहाय पांडे वादक दल 

इस तरह ‘ राई की एक पूरी रात’ नाचते-नाचते जब पूर्व दिशा में सुबह का तारा चमकने लगता है तब लोक नर्तकी की आखों में एक निंदियारी लज्जा से झुकी हुई अभिव्यक्ति सभी के साथ एक स्वर में गा उठती है-

मोरी नींदा लगन दे साई रे
भये भुनसारे टूटे तारे
नैनों में शरम आई रे।
मोरी नींदा लगन दे साई रे।

माधव शुक्ल मनोज

Monday 15 April 2013

एक अध्यापक की डायरी

शिक्षकीय जीवन वृत्त-माधव शुक्ल मनोज

माधव शुक्ल मनोज 
कार्य के रंग में रंगकर एक रंग हो जाने का आनंद और उसके अनुभव का वर्णन में किन शब्दों में करूं? उस आलौकिक आनंद का वर्णन में सिर्फ एक ही वाक्य में बतला सकता हूं कि जब भी कभी में अपने ही अंदर महसूस करता हूं तो मुझे लगता है कि मैं अपने आप में एक विद्यालय हूं। एक कवि साहित्यकार होने के नाते, फुरसत के समय एकांत में कवितायें लिखता, उन्हें गुनगुनाकर स्वर देता और गांव वालों को सुना देता। घनघोर मूसलाधार बारिश को देखकर वर्षा गीतों की रचना करना, बाढ़ से जगमगाती हुई जल से भरी नदी, खेतों में निकलती हुई उसकी नहरों की कोमल कल्पना करना, कीचड़ से भरी हुई राहों पगडंडियों पर चलने की राम कहानी गढ़ना। टीलों पहाड़ों की कटीली झाड़ियों में कांटों की चुभन की अनुभूतियों को आत्मसात करना, उन्हें शब्द देकर अपनी भावनाओं को कविताओं के माध्यम से व्यक्त करने का सुअवसर मुझे इसी ग्रामीण अंचल से प्राप्त हुआ था।



निरंतर ...


मैं तुम सब-1991 कविता संग्रह

मैं तुम सब-1991 कविता संग्रह


मैं तुम सब-1991 कविता संग्रह, समीक्षा


मै तुम सुब 

मैं तुम सब-1991 कविता संग्रह, समीक्षा

हिन्दी कविता अनेक रूढ़ियों और वैचारिक बोझिलता से मुक्त हुई है। वह आन्दोलनों शिविर से बाहर आकर यथार्थ के ठोस धरातल पर खड़ी हुई है। उसने अपने उत्स को पहचाना है।

मनोज ने दकियानुसी घिसे पिटे विचारों को छोड-अभिव्यक्तियों की भूमिका बदली है। जिसका श्रेय उनकी परिवर्तित कवि चेतना को जाता है। ‘‘ मैं तुम सब’’ इसी एक नये मोड़ की कविता है।
‘‘ मैं तुम सब’’ की कवितायें पढ़ने से लगता है कि मनोज के कवि में वैचारिक दृढ़ता और नयी राह सूझ आई है। रचनात्मकता के प्रति उनका रुख और व्यवहार भी बदला है। ईश्वर-भगवान नाम को नकारते हुए और परम प्रिय परमात्मा को स्वीकार करते हुए मनोज ने आज के तेजस्वी  ‘‘मैं’’ की गरिमा, उसकी चेतना को आज की मानवी जिन्दगी में अपनी गहरी दृष्टि से देखा और अनुभव किया है। तभी तो वे परमात्मा के अंश में -धड़कते ‘‘मैं’’ को समूची सृष्टि में होने का संकेत देते हुए कर्मशील शक्तिशाली ‘‘मैं’ को विस्तार से उजागर करते हैं।

माधव शुक्ल मनोज 
आज की कविता में एक बहुत अच्छी साफ-सूथरी कविता होते हुए मनोज के इस मौलिक काव्य-संग्रह ‘‘ मैं तुम सब’’ की कवितायें-काव्य जगत में एक नयी सोच-समझ पैदा करती हैं। उनके मस्तिष्क में उपजे नये विचार और उनके हृदय की निर्मल पावन जिन्दगी जीने की अन्वेषी भावुकता यथार्थ की तराजू पर तौली जा सकती है।

कविता संग्रह से
मैं तुम सब
माधव शुक्ल मनोज
प्रथम संस्करण
मूल्य-110@-
प्रकाशक-रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा

Sunday 14 April 2013

जब रास्ता चौराहा पहन लेता है (कविता संग्रह)

जब रास्ता चौराहा पहन लेता है (कविता संग्रह)

जब रास्ता चौराहा पहन लेता है -1997, समीक्षा

जब रास्ता चौराहा पहन लेता है चॊराहा 


 जब रास्ता चौराहा पहन लेता है (कविता संग्रह)

साक्षात्कार अप्रैल 1996 अंक 220, पेज न. 104 समीक्षक पूर्णचंद्र रथ


वरिष्ठ कवि माधव शुक्ल ‘ मनोज ’ की कविताओं, गीतों में अदभुत कला संयोजन और लोक का आकर्षण है। शायद यही कारण है कि कि उनकी अभिव्यक्ति की पारदर्शिता से प्रेरणा पाकर कई सहृदय हो सके हैं। एक कवि के लिए यह बड़ी उपलब्धि है।

उनकी कविताएं आम आदमी की आम फहम भाषा में आपसे बतियाती नजर आती है। जैसे सब कुछ उनकी जिन्दगी में, व्यक्तित्व में रचा-बसा है। बनावट नहीं है। कहने का आशय-भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियों के अनुसार जैसा तू सोचता है, वैसा तू लिख और अपने से बड़ा दिख’ इसी नाते वे सबके लिए सोचते हैं, खासकर उन लोगों के लिए तो बहुत ज्यादा-जिनके साथ वे खेत-खलिहान में रहे, नदी-नालों में नहाए, टेकरियां चढ़ी, पढ़ा-पढ़ाया, उन मजदूरों, बीड़ी कामगारों की चिन्ता भी वे करते हैं जिन्हे सड़क कूटते, बीड़ी बनाते-जिन्दगी को धूल धुआं बनाते उन्होंने देखा है।

दरअसल उनकी अभिव्यक्ति की सादगी, सरलता, निश्छलता और सरिता की छल-छल बहती काव्य भाषा के लिए सटीक नाम दे पाना संभव नहीं है। क्योंकि मनोज जी का काव्य व्यक्तित्व इसी घेरे का नहीं है-वे इस खांचे में भी समाते नहीं हैं। बल्कि इसके पीछे कुछ और है। जैसे, उनके अग्रज पीढ़ी के कवि त्रिलोचन जी में हैं और वह लोक-लोक संस्पर्श। शायद इसलिए मनोज जी का काव्य वयक्तित्व बहुआयामी है। बुंदेली के शीर्ष कवि हैं वे। लोक भाषा में आज जी रहे मनुष्य के त्रासदी को जिन कोणें से वे उजागर करते हैं वह उनका अपना प्रयोग है। बार-बार अपने बनाए खांचे से बाहर आना उनकी रचनात्मक फितरत से पगी उनकी चित्रकार सी चेतस तूलिका हर धरातल पर अपना जीवन जगत के बारीक रेशों के साथ नजर आती है।

‘‘ जब रास्ता...चौराहा पहन लेता है’’ उनकी रचनात्मकता अभिव्यक्ति का नया पड़ाव है। अपने इस संकलन में भी उन्होंने एक नये काव्य रूप से पाठकों का परिचय कराने का योग जुटाया है। वह है बिना तुकों की चैपादियों का। बे तुक होते हुए भी जो बेतुके नहीं हैं। बल्कि संग्रह की संकलित रचनाएं, काव्य अनुभव की कसावट का वह संयोजन प्रस्तुत करते हैं कि कहन का स्तर गज़ल सरीखा-काव्यार्थ का विस्तृत फलक पूरे मर्म के साथ संवोदित हो जाता है।

याद आता है ऐसे प्रयोग द्धिवेदी युग में अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘‘ हरिऔध’’ जी ने किए थे। ‘‘ चोखे चैपदे ’’ और ‘‘ चुभते चैपदे ’’ शीर्षक से। लेकिन हरिऔध के ये संकलन तुकतान से लैस थे। जबकि मनोज जी के इस संकलन में चैपदियां तुक रहित हैं। लधु-गुरू की मात्राओं का बखेड़ा भी नहीं है। है तो केवल लय जो किसी भी कविता के लिए जरूरी है। यानी कहन के अंदाज में नये पर ज़ज्बातों के प्रकटीकरण के लिहाज से पूरी तरह-कवितामय-

‘ सुबह का चेहरा मुंह धो रहा
 जिन्दगी कुछ खा-पी लेती है
 छांव-छप्पर धरती का ठिकाना है-
किरायेदार का घर बस ही जाता है।’ 

संकलन की इस सौंवी चैपदी में लय के साथ-साथ चेहरा, और घ्ज्ञर का संबंध धो, खा, ठिकाना और बस जाता शब्दों से जोड़ते मनोज जहां शब्द ध्वनियाँ  और अर्थों में एका संयोजित कर रहे हैं वहीं पक्तियों के विन्यास से पूरा मर्म संम्प्रषित कर पाने का काव्य कौशल भी अर्जित कर लेते हैं। इस व्याकरणिक व्याख्या के बगैर कविता एक नये अर्थ के साथ हमारे सामने खुलता है कि मनुष्य, किराये से ही सही, मतलब विपरीत परिस्थितियों में घर बसा लेता है और इस संतोष के साथ कि छाया, छत, घरती से वह वंचित नहीं है, जिन्दगी काट लेता है।

उपरोक्त चार पंक्तियों में मनोज आज जी रहे मनुष्य की लाचारी को ही नहीं, उसके गर्व, धरती के साथ उनके जुड़ाव तथा प्रकृति से मिल रही ताजगी को भी व्यक्त करने की कौशलता दिखा देते हैं मतलब मनुष्य को उसके बाहरी रूप के साथ चित्रित करना चूंकि कविता नहीं है इसलिए मनोज जैसे सिद्ध रचनाकार -ऐसे ही चित्रण के माध्यम से भाव का वह समागम रेखांकित कर जाते हैं कि उस व्यक्ति विशेष का अंतर्मन गहराई से उद्धाटित हो जाता है। व्यक्ति का एक नया रूप सामने आता है।

प्रकृति, पर्यावरण और परिवेश के शब्दांकन के जरिए  मनोज ने कई चेहरे उकेरे हैं-

आदमी होते हुए भी तुम आदमियत में नहीं हो। 
तुम पहाड़ी-गांवड़ी हो-जूता नहीं पांवड़ी हो
सभ्याता के नाम पर तुम इत्र फोहा से भले हो
दूध के लोटे में तुम पानी के औधे गिलास हो
अथवा’ उपदेशक जो जितना बोलता, वह भ्रष्ट है उतना

 पोथी में जो भी लिखा पढ़ता है-अपने लहजे में बीबी रो रही उसकी-लड़का गालियां देता/महानता उसके माथे पर चंदन से लिखी फिर भी ; या फिर यह भी एक चेहरा या तेवर आदमी का-

रेत में कश्ती लिए हो-देखते आकाश को
नदी कैसे आएगी तुम तक बिना बरसात के
अभी तक बादलों की रागिनी सीखी नहीं तुमने
हर बूंद के गीत में ओले का तरन्नुम है।’
क्हने का मतलब मनुष्य को आम आदमी की तरह से अनेक कोणों देखते-पकड़ते, मनोज ने उसे उसके कर्म और परिवेश के आधार पर ही अपनी इन 190 चैपदियों में सक्षमता से उकेरने का काम संभव किया है। इसलिए हर चैपदी के आदमी और उनके मन अलग दिखाई देते हैं।

वस्तुतः मनोज की इन चैपदियों में एक ऐसे मध्यमवर्गीय शॊषित मनुष्य का चेहरा झांकता है जिसे सादगी पसंद है, दुनिया में चल रहे पाखंड से जो अनजान नहीं हैं, संगठित न होने पर या न हो पाने के “ाड़यंत्र का जो शिकार है, पर जीवन जीने का जबरदस्त होसला जिसमें है। वह चेहरा आज के सामान्य या कहें 90 प्रतिशत भारतीयों का है। वह कहता भी है-

‘भाषण देना नहीं आता मुझे है
गूंगा हूं-गूंगी बात लिखना जानता हूं
दुदभि तुम तो बजाना जानते हो-
झोपड़ झुग्गियों में मंजीरे बजाना क्या बुरा है।’

संत कवि कबीर जैसी साधुता और अक्खड़पन की भाषा, इस सग्रह का प्राण है। कबीर चूंकि फक्कड़ भी रहे इसलिए किसी एक ठौर बैठ मंजीरा बजाना उन्हें रास नहीं आया होगा। अब चूंकि 600 साल में  कई कबीर मठ, प्रगति की दौड़ में देखा-देखी स्थापित हो गए हैं-सो मनोज का गूंगा मनुष्य झोपड़-झुग्गी में मंजीरा न बजाए तो क्या करे।

समीक्षक:पूर्णचंद्र रथ

जब रास्ता चौराहा  पहन लेता है
माधव शुक्ल मनोज

साहित्य सागर संस्था सागर
प्रथम संस्करण 1997
मूल्य ः 25  रूपये



माधव शुक्ल 'मनोज' के काव्य संकलन " जब रास्ता चौराहा  पहिन लेता है " 
लोकार्पण समारोह एवं कवि सम्मेलन

सागर में 31 अगस्त को सांस्कृतिक साहित्यिक स्था हिन्दू-उर्दू मजलिस द्वारा पं. मोतीलाल नेहरू म्यु. स्कूल कटरा बाजार सागर में कला साहित्य लोक गायन के तीन दिवसीय र्काक्रम के अन्तर्गत प्रथम दिवस ईसुरी सम्मान एवं राष्ट्रपति पुरस्कृत बुन्देली कवि तथा कलाचर्या के संपादक कवि श्री माधव शुक्ल 'मनोज' के नवीन काव्य संकलन "जब रास्ता चौराहा पहिन लेता है" का लोकार्पण प्रख्यात कवि समीक्षक आचार्य श्री त्रिलोचन शास्त्री की अध्यक्षता में तथा कुलपति श्री शिवकुमार श्रीवास्तव के करकमलों से सम्पन्न हुआ। मुख्य अतिथि श्री महेश कुमार मलैया विशेष रूप से उपस्थित थे। इस अवसर पर कवि श्री माधव शुक्ल 'मनोज' द्वारा अपनी काव्य यात्रा के हर पढ़ाव से चुनी हुई प्रतिनिधि कविताओं को प्रस्तुत किया गया।


तत्पश्चात श्री शिवकुमार श्रीवास्तव ने उनके काव्य संकलन " जब रास्ता चौराहा पहिन लेता है " का लोकापर्ण प्रख्याता कवि-समीक्षक श्री त्रिलोचन शास्त्री के सानिघ्य में किया।


इस अवसर पर संबोधित करते हुए कुलपति श्री शिवकुमार श्रीवास्तव ने कहा कि यह मेरे लिए कठिन कार्य है कि मैं श्री मनोज की काव्य यात्रा के संदर्भ में जब इनका रास्ता चैराहा पहिन ले कुछ कह पाना कठिन बात है जब एक रास्ता आता है तथा दूसरा कहीं से आता है तो एक बिन्दु पर मिलते हैं और दो रास्ते और जुड़ जाने से वह चौराहा हो जाता है, चैराहे को खड़ा कर दें तो वह सलीब हो जाता है। मुझे ऐसा लगता है कि कवि उस सलीब पर टंगा है, रचना यात्रा बड़ी कठिन है, कवि को सच्चाईयां प्रस्तुत करने लिए हाथों-पावों में कीलें ठुकवाकर उस सलीब पर लटकना पड़ता है और यह बार-बार होता है एक चैराहे से काम नहीं चलता तभी श्रेष्ठ कविता जन्म लेती है।


कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रख्यात कवि, समीक्षक आचार्य त्रिलोचल शास्त्री ने 'मनोज' को सागर का प्रतिनिधि कवि मानते हुए आशीर्वाद दिया और कहा कि मनोज किसी से प्रभावित हुए बिना कविता में इतनी गहराई से बात करते है जो दूसरे व्यक्ति भी नहीं कर पाते।

समाज सेवी महेश मलैया ने हर क्षेत्र में व्याप्त सच्चाई के संकट पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि 'मनोज' की कविताओं में इस संकट से लड़ने की क्षमता है।

साहित्यकार रमेशदत्त दुबे ने कहा कि माधव शुक्ल 'मनोज' की कविताए घोर यथार्थ में प्रजनन की खोजती कविताए हैं जो निम्न मध्यवर्गीय समाज को बड़ी पैनी नजर से झांकती हैं


चिन्तनशील कवि ऋषभ समैया ने संचालन करते हुए 'मनोज' के काव्य शिल्प को बिन्दु-बिन्दु रेखांकित किया एवं " जब रास्ता चौराहा पहिन लेता है " पुस्तक के बारे में पूर्णचन्द रथ का प्रेषित समीछा वक्तव्य का पाठन किया।

षड़यंत्रों के हाथ होते हैं-कई हजार-1992 कविता संग्रह

षड़यंत्रों के हाथ होते हैं-कई हजार-
कविता संग्रह

षड़यंत्रों के हाथ होते हैं-कई हजार-1992 कविता संग्रह -समीछा,

1992    षड़यंत्रों के हाथ होते हैं-कई हजार






टूटे हुए लोगों के नगर में -1992 कविताएं


टूटे हुए लोगों के नगर में 

टूटे हुए लोगों के नगर में -1992


कविताएं

1 चिल्लाता है जनमन..चिल्लाता है जनमन

हरि गुमसुम है, आसमान में,
चिल्लाता है जनमन
भेद आदमी ने बोया है
बटवारा है मन का
स्वार्थ सिद्धियां उगती आती
अनाचार हर दिन का
हुई भावना गन्दी/नाली गंध उड़ी जहरीली-
फंसा हुआ है कीड़ों जैसा किल्लाता है जनमन
हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।

महलों में इन्सान बड़ा हो
खाता लड्डू-पूड़ी
झोपड़ियों में पड़ी गरीबी
तप चढ़ी है-जूड़ी
मरे देश या मानवता भी अपने सुख के खातिर-
तिरस्कार से नीचे लेटा कुन्नाता है जनमन।
हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।।

सेवा का है मूल्य धृणा से
कैसी अद्भुत लीला।
असहायों के सिर के ऊपर
गढ़ा हुआ है कीला।
सभा-भाषणों के द्धारा आदर्श बघारा जाता-
शाला की बजती घंटी सा झन्नाता है-जनमन।
माधव शुक्ल मनोज 
हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।।


2  इबारत आदमी की

इबारत आदमी की

जीने का सवाल हल करते-करते
जिन्दगी का उत्तर गलत हो जाता है
गुजर-बसर का सूत्र
वर्तमान का गुणा-भाग
भविष्य का जोड़-बाकी
एक बिन्दु पर रह जाता है
निराशायें आदमी को खरीद लेती हैं
आदमी बिना भाव के बिक जाता है।

सवालों के ढेर के ढेर
नये-नये माप-तौल
मंहगाई की नयी परिभाषा-
गेहूं और पेट्रोल।

किलो और मीटर में
पानी और आग का सवाल
सवाल इबारत में बंध कर
किसी वृक्ष के ऊपर बैठ जाता है।

हाय रे, सवाल के साथ-साथ
अपने हाथों के पोरा गिनता हुआ आदमी
वृक्ष के नीचे
पक कर टपक जाता है।
उसका पूरा समय
एक कोने में
लाठी की तरह टिक जाता है।



टूटे हुए लोगों के नगर में-1992 ,समीक्षा

 टूटे हुए लोगों के नगर में

टूटे हुए लोगों के नगर में

काया कला में और आत्मा कविता में तब बदलती है, जब व्यक्ति समाज अथवा युग में बदल जाता है। यह एक शाश्वत सत्य है कि समय बड़ी तेजी से बदल रहा है। कल आज में बदल रहा है और आज बदल रहा है आने वाले कल में ?

वास्तव में आदमी मस्तिक से जीवित है, वहां अततः परिणाम टूटन धुटन और दर्द के ही होंगे। इसलिए कविता कर्म निजी वस्तु है उसका संबंध मनुष्य की भीतरी संवेदनाओं और गृहणशील चेतना से होता है। कविता एक ऐसा संगीत है जा पहिले भीतर रिसता है और फिर उछालें भरने लगता है। इस तरह कविता एकांत संगीत होते  हुए भी मनुष्य समाज से जुड़ी है। इसीलिए सही कविता निजी होते हुए भी सार्वजनिक होती है और वह अप
माधव शुक्ल 
नी संवेदनाओं से जन-मन तक पहुंचती है।

आज की कविता आज के आदमी की टकराहट ही तो है इसीलियसे उसकी अनुभव की अभिव्यक्तियों टूटन-घुटन और दर्द की ही होंगी। कविता को हादसा नहीं है हवाई उड़ान भी नहीं बल्कि एक यथार्थ है। एक परिवेश है। सामंजस्य तलाशती पूरी एक जिन्दगी है। आदमी होने की तकलीफ है। स्वाभिमान की जद्दोजहद है।  स्वयं को और अपने समय की समझ पाने की कोशिश है। जीने की पुरजोर इच्छा है। खुद को खुद के ही सामने ला रखने का साहस है। आदमी से आदमी का सम्वाद है। आपने से ऊपर उठने का प्रयत्न और ऐसा करती भाषा-माध्यम द्वारा आने अनुभव और सोच को व्यक्त करना आज की नयी कविता है। यह समझ और अभिव्यक्तियां मनोज की कविता में सार्थक दिखाई देती हैं। जनमानस में उठता हुआ बबन्डर घूमता यथार्थ का समय चक्र उसके दिल-दिमाग में है। देश समाज में हो रहे विघटन, अलगाव व स्वार्थ पूर्ण धिनौनी राजनीति उत्पीड़न अनास्था, आक्रोश, संघर्ष, विस्फोट, आतंक, बेरोजगारी, धर्मान्धता और अनुशासनही शिक्षा की व्यथा, असंतोष., सहानुभूति उनकी कविता की एक जागरूक मिसाल है। इस तरह टूटे हुए लोगों के नगर में की कवितायें विशेषतः पराजय बोध और मौजूदा अनाचार व्यवस्थाओं-यातनाओं का अहसास कराती हुई निराधार कल्पना या विकृति का परिणाम न होकर वर्तमान के जीवित यथार्थ पर आधारित है। जिनमें युग परिवर्तन की मंजिल तक पहुचने के लिए एक छटपटाहट मिलेगी तभी तो कहीं-कहीं उनके पैने धारदार व्यंग एक नयी दिशा देते हुए दृष्टिगोचर होते हैं जो सहजता लिए हुए नमक की तरह धुलमिलकर नस-नस में असर करते हैं। मुझे विश्वास है कि मनोज के इस संग्रह की कवितायें पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करेंगी और कुछ सोचने-समझने के लिए बाध्य करेंगी।

टूटे हुए लोगों के नगर में पुस्तक में प्रकाशित दो शब्द

धुनकी रूई पै पौवा-1992 बुन्देली कवितायें

धुनकी रूई पै पौवा

बुन्देली कविता संग्रह


सूखे ककरी कौ जौआ,
छाती में उगे अकौआ,
थ्सर के ऊपर आज विपद को
बोले कारो-कौआ।
ऐसो लगे समय नें धर दओ
धुनकी रूई पै पौआ।



 1 कितनौ गज इंदियारो

कितनौ गज इंदियारो
चलो, चलें-नापें
पांव धरें सदकें
ऐरो नें होय।
मचस की डिबिया की
सीकें-उजयारें।
         धुटनों खौं मोड़-
         रात कांखरी में नापें
कितनों गज इंदियारो, चलौ चलें नापें।
टुकुर-मुकुर हेरें
चुप्पी खों साध।
कान बांध गमछा से
छाती खों ठांक।
         गुरसी में आग बार
         जड़कारो-तापें
कितनों गज इंदियारो, चलो चलें नापें।
कुंदें और फांदें
मारें-छलांग।
धरती खों रौंदें
चढ़ जावें पहाड़।
         सांसें उसकरें
         दहकावें
मों में की भापें।
कितनौं गज  इंदियारो, चलो, चलें-नापें।

धुनकी रूई पै पौवा-1992- समीक्षा


धुनकी रूई पै पौवा 

 बुन्देली में गोता लगाते माधव शुक्ल ‘ मनोज ’ नवभारत भोपाल 19 अगस्त 92 समीक्षक-बटुक चतुर्वेदी


माधव शुक्ल मनोज का नया काव्य संग्रह धुनकी रूई पै पौवा में उनकी 20 बुंदेली कवितायें संग्रहित हैं। इन कविताओं की शैलीगत नवीनता, सपाट बयानी, सरल शब्द योजना, गहरी भावाभिव्यक्ति और मंत्र मुग्ध करने वाली चित्रोत्पयता मनोज को नई पहचान देती है।

इसमें मनोज ने नवगीत शैली को बुंदेली में स्थापित किया है जो नये कवियों को प्रेरणा देगी।
धुनकी रूई पै पौवा
मनोज केवल गांवों के गलियारों में ही भटकता कवि नहीं है। उसे समय की हर धड़कन का पता है। वह एक सतर्क कवि है। समाज में फैली विसंगतियों को भी वह उजागर करता है तथा सामाजिक राजनैतिक प्रदूषणों पर भी उंगली उठाता है।

मनोज का जीवन दर्शन आम भारतीय जीवन दर्शन से भिन्न नहीं है। आत्मा, जगत, शरीर, प्राण नियंता की असलियत से भी कवि बेखबर नहीं है। मनोज का यह काव्य संगह उनको एक सशक्त बुंदेली रचनाकार सिद्ध करने में समर्थ है

डा. कान्ति कुमार जैन के शब्द यहां उद्ग्रत करना चाहूंगा, मनोज के बारे में- ‘‘ उन्होंने बुन्देली कविता को एक नई विधा अभिव्यक्ति देकर बुंदेली कविता का प्रतिनिधित्व किया है। नई पीढ़ी उनकी इस शैली, भावाभिव्यक्ति और नये प्रयोग-प्रतीकों से अवश्य प्रभावित होगी।


समीक्षक-बटुक चतुर्वेदी

साहित्य सागर संस्था, सागर