Sunday 26 May 2013

बुन्देली के प्रतिनिधि कवि : मनोज


माधव शुक्ल मनोज हिंदी के परिचित कवियों में हैं और उन की हिंदी की कवितायें सुन का श्रोता भावित और प्रभावित होते हैं। वे आधुनिक हिंदी के अलावा बुंदेली में भी काव्य रचना करते हैं। बुन्देली में काव्य रचना वे पर्याप्त समय से करते आ रहे हैं और उन की बुंदेली रचनाओं से भी बुन्देलखंड के लोग परिचित हैं। उन की बुंदेली कविताओं का संग्रह ‘‘ कितनों गज इंदियारो’’ है। इस के तीन भाग हैं। पहले भाग का नाम ‘‘ कितनों गज इंदियारो’ ही है। दूसरे भाग का शीर्षक है ‘‘ धुनकी रूई पै पौआ’’ और तीसरे भाग का नाम है ‘‘ इकदम दिया से उजर गये’’।

माधव शुक्ल मनोज 
बुंदेली में उन्होंने लिखना बराबर चालू रखा है। उन की बुंदेली कवितायें भी उसी कोटि की हैं जिस कोटि की आधुनिक हिंदी की कविताऐं।  व्यंजना का माध्यम बदलने से बुंदेली कविताओं में बुंदेली परिवेश, संस्कार और भाव बुंदेलखंड के निवासियों के लिए और अधिक आत्मीयतापूर्ण हो जाता है। बुंदेलखंड की लोक संस्कृति के सभी अंगों से उन का अच्छा परिचय है-लोकगीत, लोक नृत्य और लोक वाद्य इन सब पर गंभीरता से विचार करते हैं।  उन की एक छोटी किताब ‘राई’ पर प्रकाशित हुई है जो आधुनिक हिंदी गद्य की पुस्तक है। लोक कला के अनुरागियों द्वारा इस पुस्तक को सराहा गया है और इस पुस्तक से माधव शुक्ल ‘मनोज’ पर लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ है। लोक गीत और बुंदेली कवियों से भी उन का पर्याप्त संपर्क और परिचय रहा है उन की बुंदेली कवितायें उत्तम काव्य की कोटि में हैं।

उन की बुंदेली कविताओं से बुंदेलखंडी संस्कृति का भावात्मक परिचय मिलता है। वे लोक गीतों की शैली तो अपनाते हैं भावों के प्रस्तुतिकरण उन के अपने ही हैं। इस प्रकार वे बुंदेली के मौलिक कवि हैं यह और प्रसन्नता की बात है कि वे बुंदेली कविताओं में आधुनिक हिंदी के भावों से भिन्न स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करते हैं।

माधव शुक्ल मनोज ने काव्य रचना को बुंदूली में वह स्तर दिया है जो कोई अनुभूतिचेतन कवि ही दे सकता है इन कविताओं का वाचन करने वाले यह देखेंगे और ठहर कर विचार करेंगे तो उन्हें आहृलाद होगा।

बुंदेली बुन्देलखंड की अपनी उपभाषा है जिस में अनेक बोलियां हैं कवि ने सागर की बोली पर ध्यान दिया है और निस्संकोच सागर की बोली को ही ज्यों का त्यों रखा है। जनपदीय भाषाओं में जो रचनाकार है उनहें अपने क्षेत्र भाषा का व्यवहार करने में विशेष सुविधा होती है शुक्ल जी सागर के निवासी हैं ओर उन्होंने सागर की ही बोली को अपने काव्य का माध्यम बनाया है बुन्देली बाहर भी पढ़ने वाले अच्छी तरह समझ लेंगे क्योंकि जनपदीय भाषाओं में भेद के होते हुए भी अभेद का तत्व पाया जाता है काव्य के अनुरागी हिंदी की इस उपभाषाओं का भी उसी प्रकार स्वागत करेंगे जिस प्रकार आधुनिक हिंदी का करते हैं। जनपदीय भाषाओं की रचना जनपद निवासियों के लिए सीधे संवाद का माध्यम बनती है रचनाकार और पाठक दूरी का अनुभव नहीं करते यह आत्मीयता माधव शुक्ल मनोज आगे बढ़ाते हैं।

27 जुलाई 1990

त्रिलोचल शास्त्री

अध्यक्ष
मुक्तिबोध सृजन पीठ
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,
सागर, मध्यप्रदेश

मनोज का कवि


माधव शुक्ल मनोज 

श्री माधव शुक्ल मनोज बुन्देली के नैसर्गिक कवि गीतकार हैं। उनकी हिन्दी कविता भी बुन्देली  की धरती पर खड़ी होती है और सम्पूर्ण  जातीय संस्कार ग्रहण करती हैं इसलिए मनोज की किसी भी रचना में मिट्टी की वह सौंधी सुगन्ध मिलती है, जो मनुष्य की मूल प्रकृति और नियति को गहरे तक व्याख्यायित करती हैं।

श्री मनोज के हिन्दी कविता संग्रह सिकता कण, भोर के साथी, माटी के बोल, एक नदी कंठी सी, नीला बिरछा, टूटे हुए लोगों के नगर में, जिन्दगी चंदन बोती आदि की रचनाओं में जीवन के विभिन्न  लम्बे अनुभवों का सार तुकान्त-अतुकान्त कविता में उतारेने की कोशिश की है। श्री मनोज की हिन्दी कवितओं को पढ़ने पर लगता है जब वे कोई बात बुन्देली में नहीं कह पाते या उन्हें ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दी में कहने में अधिक सुविधा होगी, तब वे हिन्दी की तुकान्त - अतुकानत कविता लिखने लग जाते हैं परन्तु मुझे हिन्दी कविताओं का स्वर भी बुन्देली गीत-कविताओं से बाहर नहीं लगता बल्कि यह कहना अत्युक्ति नहीं है कि 'मनोज' तो मूलतः बुंदेली बोली के कवि-गीतकार हैं। जहां बुन्देली शब्द काव्य की सरस धरती पर ऐसे बरसते हैं जैसे सावन की फुहार तन-मन को सुख देती है, भिगा देती है।

‘ जब रास्ता... चौराहा पहिन लेता है, चौकोर तुक्कों का संकलन है। कवि कहता है-ये चौकोर तुक्के अपनी नयी शैली-शिल्प में है। जिसमें कोई छन्द मात्राएं नहीं है। एक सीधी सादी कहन ही मौजूद  है-

अंधेरे में गेंहूं की बालों का उजाला
फसल रात ने चपके से रखली काटकर
दिया जगमगा कर अपना अब हिस्सा मांगा
सूरज ने किरण बो दी है-दिन के खेत मैं।

इस सीधी सादी कहन में प्रकृति की विपरीत व्यवहार दशा मनुष्य के आचरण को केन्द्र में रखकर कही गई है।
आज की स्थिति पर श्री मनोज संग्रह में कहते हैं 'आदमी सूखे लकड़ी का गट्ठर सा बंधा है' या 'खंडहरों में चालाक धुग्गू बैठे हुए हैं' अथवा 'आदमी तो आदमी, उसकी तस्वीर कितनी दोगली-आईना उसका भी है और चेहरा भी उसका'। 'भागती परछाईयों के सामने किस तरह पकड़ोगे अपने आपको'। आदि अभिव्यक्ति मनोज जी के लोक मानस की छटपटाहट लगती है।

श्री माधव शुक्ल मनोज बुन्देली संस्कृति के गहरे अध्येता हैं इसलिए बुन्देली लोक संगीत, लोक साहित्य और परम्पराओं को ध्वनियां उनके काव्य में सहज रूप से देखी जा सकती है। बुन्देली लोक धुनें मनोज जी की कविता को सांगीतिक आधार देती है और उन्हें गेयता की श्रेणी में बिठाती है। साथ ही शब्द परम्परा की सूत्रात्मकता को भी वागर्थ में अनुस्यूत करती चलती है।

श्री माधव शुक्ल मनोज के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता कि मनोज जी अपनी कविता में अपने कवि को कभी दोहराते नहीं हैं सदैव नये शब्दों में नई बात करते हैं यह विशेषता बुन्देली और हिन्दी दौनों में मौजूद रहती है। कविता अपने आसपास को सहज धटित व्यंजनाओं को अपनी कविता में बड़ी संवेदनशीलता के साथ पकड़ते हैं इसलिए' मनोज' जी सच्चे अर्थ में जन-जन के कवि हो जाते हैं। बुन्देली हिन्दी की सुदीर्ध परम्परा को साधते हुए श्री मनोज जी ने बोली और भाषा का अनार्लय के सेतु का निर्माण किया है यह संयोग किसी अन्य कवि-गीतकार में दुर्लभ ही है। इस परिप्रेक्ष्य में श्री मनोज जी का अवदान सदैव याद किया जायेगा। 

वसंत निरगुणे


कलाचर्या-संपादन

कलाचर्या-संपादन 
माधव शुक्ल मनोज

 लोकार्पण 





Sunday 12 May 2013

विन्यास-कविता मासिक

विन्यास-कविता मासिक

माधव शुक्ल 'मनोज',
रमेशदत्त दूबे,
विजय कुमार,

पता-
विन्यास कार्यालय
परकोटा सागर मध्यप्रदेश

अगस्त 1962, अंक-एक, वर्ष-एक, प्रकाशित हुआ था



सम्पादकीय

विन्यास का प्रथम अंक आपके सामने हैं। 'विन्यास' को जो रूप हम देना चाहते थे, वह नहीं दे पाये। विन्यास के घोषणा पत्र में भी जिन विधाओं की हमने चर्चा की थी, उनमें से भी कुछ रह गयी हैं। उसके कई कारण हैं
'विन्या'स के संपादकों ने नयी कविता के कुछ प्रसिद्ध कवियों से उनकी कृति के लिए आग्रह किया। कवियों ने टके सा जवाब दिया कि पिछले वर्ष से उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा है।

एक नया कवि बिना कुछ दिये ( कुछ व्यापारिक पत्रिकाओं को कवितायें देने के अलावा ) निःशेष हो जाये यह दुख की बात है। होता यह है कि बिना काव्य-प्रतिभा के कुछ कवि काव्य रचना प्रारंभ कर देते हैं-कुछ निश्चित फिकरों और मुहावरों की दम पर। बार-बार उन्हीं मुहावरों और फिकरों का प्रयोग करते-करते कवि खुद कब ऊब जाता है। फलतः काव्य रचना बन्द हो जाती है।

कुछ रचनाकारों ने अपनी वे रचनायें पहुंचाई जो कई जगह से अस्वीकृत हो चुकी थी। उनके मन में सम्भवतः यह थाकि छोटे शहर की छोटी पत्रिका, रचना छप जायेगी। यह एक साहित्यिक बईमानी है।
जैसा कि होता है सोच-विचार कम और रचना (खास कर कविताओं की) अधिक, सो गद्य इस अंक को मिला नहीं।

अन्त में आशा और विश्वास के बल पर अगला अंक निकलेगा। आपकी सर्वश्रेष्ठ कृति आमंत्रित है।


अगस्त 1962

इस अंक में-

दूध नाथ सिंह
श्रीराम वर्मा
निर्मला वर्मा
अनामिका
प्रेमलता वर्मा
धारा मिश्र
मनोज


अपरान्ह -दूधनाथ सिंह
द्वन्द         -निर्मल वर्मा
दो कवितायें -रमेशदत्त दुबे
विशिष्ट कवि
सपना, मुट्ठियों में, फूल दर्पण, नीली झील, प्रभात का चंद्रमा @अबोध स्थितियों तीन कवितायें-मनोज
गांव की याद -मोहन अम्बर
हम तुम दो मीठे बैना -नीलोद कुमार
बसन्त -अनामिका
तुम्हारी बांहों में -प्रेमलता वर्मा
पुनर्जन्म -धारा मिश्र
भाषान्तर मराठी कवितायें
चन्दन -सदानन्द रेगे,
राह        -आरती प्रभु
-अनुवाद दिनकर सोनवलकर
चेलिया-एक विज्ञापन -श्रीराम वर्मा,
बबूल -दिनकरराव
एक कविता -गंगाप्रसाद विमल
एक कविता -बेंकटराव



सितम्बर 1962 अंक दो

प्रेमाभाव -आग्नेय
धाटी, वसंत और ‘ााम -राम विलास शर्मा
काव्य भूमिः संकलित टिपपणियां-विजयकुमार
                                    -शमशेर बहादुर सिंह
                                    -दूधनाथ सिंह (कल्पना130)
-गजानन माधव मुक्तिबोध( कालिदास जनवरी 1962)
विशिष्ट कवि -ओमप्रभाकर/नीलोद कुमार
डूब गये सूरज के लिए -ओमप्रभाकर
दिल्ली में एक दिनः आधुनिक शहर की एक प्रतिक्रिया
सहजिए क्षण
हर जलूस निकले मेरे ही द्वारे से
एक कविता -भागीरथ भार्गव
आस्था -अनुरागी
ओ कविता -देवब्रत देव
छाया-प्रेत -श्रीबाल पाण्डेय
एक कविता -चन्द्रकान्त देवताले
एक उर्दू कविता -मुबारिक है-मुनब्बर
काव्य रेखांकन
एक हस्ताक्षर और -राजा दुबे, संकलन रमेश कुमार तैलंग

नई कविता और कुछ प्रश्न-एक पाठक
पत्र


फरवरी अंक 1965


-वेंकटराव की पांच कवितायें
सब्र
रक्षा
प्रतिशोध
भविष्य
सोये हुए लोग
तुम
किस अज्ञात इशारे पर -दूधनाथ सिंह
फूंक दो -भारत भूषण अग्रवाल
प्रायश्चित -मणि मधुकर
ऐतिहासिक संदर्भ का दायित्व और आगामी पीढ़ी-गंगाप्रसाद विमल
कुतुबनुमां -राजकमल चैधरी
मैं चीड़ का दरख्त हूं   -विष्णु चन्द्र शर्मा
प्यार
ये उपलब्ध्यि -नारायणलाल परमार
एक कविता -प्रभाकर माचवे
एक कविता -नागानन्द मुक्तिकंठ

संपादकीय





Friday 10 May 2013

सोनार बांगला देश-सम्पादन

माधव शुक्ल मनोज 
मानव का सब से महत्वपूर्ण अधिकार आत्म निर्णय का अधिकार है। आज बंगला देश में जनता के इसी अधिकार का बर्बरता पूर्ण नृशंस अपहरण और दमन किया जा रहा है।

मानवता की रक्षा के और विचार से सहानुभूति रखने वाले साहित्यकारों, कवियों का कर्तव्य है कि वे इस अन्याय के विरूद्ध आवाज उठायें और बंगला देश के लिये जूझती जनता को अपनी पूर्ण सहानुभूति दें।

इस समय देश के सामने बंगला देश, उसकी कराहती हुई गरीब शोषित जनता का दुख दर्द एवं अत्याधिक संख्या में आये हुए  शरणार्थियों की समस्या एक बड़ी जटिल समस्या है।

इन्हीं संदर्भों में अपने अपने विचारों को प्रकट करने लिए बंगला देश के पीड़ितों के सहायतार्थ हमने नगर के कवियों की कविताओं का एक छोटा सा संकलन 'सोनार बांगला देश' आपके समक्ष रखने का प्रयास किया है।

संकलन के सभी कवि-मित्र एवं साहित्यकार बंगला देश सहायता समिति सागर के समस्त सदस्य श्री विट्ठलभाई पटेल अध्यक्ष नगर पालिका सागर के आभारी हैं कि उनके ही विशेष सहयोग से यह सकलन (जिसकी आय बंगला देश के सहायतार्थ भेजी जायेगी ) आपके हाथों में पहुच सका है।

सम्पादक
माधव शुक्ल मनोज


सोनार बंगला देश- सम्पादक माधव शुक्ल मनोज 
कवि

श्री चन्द्रशेखर व्यास
 गोविन्द द्विवेदी
 कन्छेदीलाल अलबेला
 गोविन्द देवलिया
 ऋषभ समैया
 रमेश दत्त दुबे
 विट्ठलभाई पटेल
 लक्ष्मीनारायण चैरसिया
 निर्मल नीरव
 मनोज
 शिवकुमार श्रीवास्तव
 लक्षमण सिंह चैहान निर्मम
 ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी
 फूलचंद मधुर
 सलाम सागरी
 इकराम सागरी
 रामसिंह चैहान बेधडक
 हरिप्रसाद द्विवेदी
 प्रेमशंकर
 केवल जैन
 नवीन सागर
 जयनारायण दुबे
 योगेन्द्र दिवाकर
 श्री रघु ठाकुर


भूमिका

सोनार बांगला देश मेरे सामने हैं। सागर के सहकर्मी कवि मित्रों का एक सजग संकलन। भाई ‘मनोज’ और ऋषभ समैया ने इन रचनाओं को जुटाया है और जनता तक पहुंचाया।

कहते हैं जब-जब मिट्टी पर संकट आता है तब-तब मिट्टी के बेटे सबसे पहिले हांक लगाते हैं। वह मिट्टी फिर हंगरी की हो, वियतनाम की हो या बांगला देश की ! इसमें भारत की मिट्टी भी सम्मिलित है। जो सबसे पहिले स्वीकारे और आभारे, मां उसी की होती है। यह संदर्भ भी एक ऐसा ही रहा। भारत के स्वतन्त्रय संग्राम के लिए कभी अविभाजित बंगाल की मिट्टी से एक गीत फूटा था ‘‘ बन्दे मातरम’’! बंकिम बाबू ने इसे लिखा और पीढ़ियों ने इसे गाया। पीढ़ियां ही नहीं अब शताब्दियां भी इसे गायेंगी।

उस एक गीत का हम कलम जीवियों पर इतना कर्जा है कि हमें न जाने कितने जन्में तक यह कर्जा चुकाना पड़ेगा। भारत के कवियों को यह कर्ज अपनी वसीयतों में स्वीकार करना होगा। मेरा मन कहता है कि सारे देश में हम लोग बांगला देश की वेदना और संवेदना के लिए जो कुछ लिख रहे हैं व उसी कर्जे की किश्तों में जमा होगा। हम बांगला पर उपकार नहीं कर रहे हैं।

प्रस्तुत संकलन की रचनाओं का आक्रोश और तेवर समयानुकूल तो है हीं, वीरोचित और मानवोचित भी है। यह आवश्यक भी था।

‘‘ बांगला देश के संदर्भ में राजनीति, जितनी निर्मम, मानवीयचता जितनी गूंगी और राजनेता जितने बहरे सिद्ध हुए हैं वह बेजोड़ है। इस शताब्दी का यह ‘पाषाण पर्व ’ इन गूंगों बहरों औश्र निर्ममों को कभी क्षमादान नहीं देगा।’’
मेरी बात को काव्यात्मक रूप से पं. ज्वालाप्रसाद जयोतिषी ने इस संकलन में कह तो दिया है।


‘‘पंछी आज गाते हैं क्यों नहीं ?
  सूरज उग आया है
  चारों ओर उजियाला छाया है
  फिर भी सब चुप क्यों हैं
  जागरण की भैरवी उठाते नहीं
  गौरईयों-पड़कुलियों-सुग्गे औ
  कौवे औ मैना औ कोकिल
....सब मौन हैं।’’


बांगला में भैरव का रक्त-खप्पतर छलका और हमारी भैरवियों जाग गई हैं। अब ये सारे प्रतीक हमने बंगला की सम्पूर्ण मुक्ति को अर्पित किये हैं। बंकिम, श़रत, रवीन्द्र और अनगिन पहरूओं को हमने भी एक फौजी सलाम ठोका।

मैं जानता हूं इन रचनाओं में युद्धोन्माद नहीं है न ये बोल हमारी युयुत्सवा वृत्ति के कोरस ही हैं पर ये जो भी कुछ हैं किसी मंगल लक्ष्य की ओर बढ़ते आहत देश के आगे उचारे जाने वाले चारण-बोल तो हैं ही। जब भी बंगाल में सम्पूर्ण मुक्ति की प्रतिष्ठा होगी, हम सर्वाधिक सम्मानित होंगे। उन्हें उनका प्राप्य मिल, हमें हमारा। इस बीच का सारा संघर्ष वहां और यहां सीधी संघर्ष है।
हम चूकेंगे तब भी चुकायेंगे जरूर।

सबको बधाई।

बालकवि बैरागी

राज्य मंत्री
सूचना तथा प्रकाशन एवं पर्यटन

दिनांक 21.7.1977

Thursday 9 May 2013

राजा हरदोल बुंदेला - नाट्य साहित्य

राजा हरदोल बुंदेला - माधव शुक्ल मनोज


'बुन्देली का आधुनिक नाट्य साहित्य' पुस्तक मै प्रकाशित राजा हरदोल बुंदेला नाट्य लगभग 3 4 पेज मै है

माधव शुक्ल मनोज


 





प्रकृति के तरुण गायक मनोज-निर्द्वन्द


प्रकृति के तरुण गायक मनोज-निर्द्वन्द 



नई दुनिया 29 अप्रैल 1962

साधारण कद, छरहरा शरीर, तीखे नाक नक्श, पीछे की ओर बिखरे छितरे लम्बे बाल और इनमें जो रूप रेखा उभरे वे हैं   30 वर्षीय कवि माधव शुक्ल  ‘मनोज’। ‘मनोज’  जी सागर के निकटस्थ ग्राम 'पनागर' की प्राथमिक शाला में शिक्षक हैं। हृदय के उदार संवेदलशील। धुन और लगन के पक्के अभावों से सदा जूझने वाले। प्रकृति के सहचर्य में अपने अभावों को मूल आनंद की उपलब्धि के प्रयासों में संलग्न इस तरुण कवि ने प्रकृति के रूपों को जिस संजीवता के साथ अंकित किया है उससे हिन्दी काव्य की श्रीवृद्धि हुई है। कॉंटों में भी जिनके बोल मस्ती से फूटे हैं, एक आस्था के साथ-

बेल पात्रिकाए टहनी में बेलों के
संग झूम रही
अड़न्नाथ केथों की टोली कांटो के 
बन चूम रही
माटी के ढेलों पर हैं गमार पाठे
का पत्ता
फैल रही यों अगल-बगल में अन-
गिनती कांटों की सत्ता
मंजिल तक चलने वालें के छाले
छिलकर फूट रहे
मैदानों में खड़े घास के डन्ठल सीधे
सूख रहे
जुभ जाने को सभी चाहते रो देना
मत भूल के
कांटे लगे बबूल के।

कांटों के बीच खिलने वाले फूल ही जीवन को उसके वास्तविक स्वरूप को समझ पाता है-

दो बीघा जमीन के राजा मैं रानी
हूं खेत की
चमकदार पड़े पत्थर मैं चिनगारी
हूं खेत की
इसीलिए हर अधियारे पर फैला
मेरा राज है
आफत का तपता अंगारा मेरे
सिर का ताज है
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम मेरे
संगी साथ हैं
मेरे हाथों में जो तेरे वे दोनों ही
हाथ हैं
ओ मेरे जीवन के आंगन
कैसे यह चलती है धड़कन
हमने जाना तुमने जाना

जीवन के अन्धड़ में आस्था का दीप जलाने वाले कवि मनोज का जन्म सागर में 1 अक्टूबर 1930 को हुआ था। संघर्षों में पले और बढ़े-चाह होते हुए भी उच्च शिक्षा न प्राप्त कर सके और विवशता के साथ समझौता कर प्राथमिक शाला में शिक्षक हो गए। पढ़ने का संतोष न मिला तो पढ़ाने का बाना पहिना, बेबसी की लोरियां सुनी तो आस्था के गीत गाये और प्रकृति की गोद में जा लेटे। कैसा है यह विरोधाभास जो समझ कर भी अबूझ रहता है।

मैनें जब मनोज को पहली बार देखा था तो वे कटरा बाजार से पीपल की पत्तियों की जुड़ी लटकाये मस्ती में झूमते चले जा रहे थे साथ के एक कथाकार मित्र बोले-जानते हो वह कौन हैं? और जब तक मैं नाकारात्मक उत्तर दूं वे स्वयं बोले मनोज जी हैं यहां के तरूण कवि। पीपल की पत्तियां ले जा रहे हैं।

मनोज की कई रचनायें तब तक मैं पढ़ चुका था, रेडियो में भी उनका कविता पाठ सुना था और बिना देखे ही अपनी मान्यता बना चुका था। मित्र के कथन से चुभन हुई पर हंसकर बोला शायद आपके लिए ही न हो।
फिर मनोज जी से परिचय हुआ और तब मैंने जाना कि वह ठाठदार मनुष्य ही नहीं ठाठदार कवि भी हैं।

मध्यप्रदेश के तरूण कवियों में मनोज जी ने एक विशिष्ट स्थान बना लिया है। तीस वर्षीय इस कवि ने ग्राम जीवन और ग्राम प्रकृति के चित्रों को जिस रंगीनी और खूबी के साथ चित्रित किया है वह विगत पच्चीस वर्ष के हिन्दी काव्य में बिरली ही देखने को मिलती है। श्री आदर्श का यह कथन उचित ही है कि ग्राम्य जीवन और ग्राम्य प्रकृति को मनोज ने अत्यन्त निकट से देखा है और गहरी अनुभूति के साथ उन्हें शब्द चित्रों में उतारा है। बुन्देलखण्ड के गांवों को उन्होंने वाणी दी है उनमें अनुभूति की ईमानदारी घोली है और कहने की सफाई भी। उनके गीत अनुभूतियों  को सहजता के कारण ही सरस बन गये हैं। 

इसमें संदेह नहीं कि मनोज जी ने सूक्ष्म दृष्टि पाई है और उनकी सहृदयता ने उन्हें सुरूचिपूर्ण अनुभूतियों की आस्थापूर्ण अभिव्यक्ति दी है। इसी से कवि के काव्य ने विस्तार पाया है।
वह हंसे ज्वार के खेत की कुटकी को ब्याह रचाते और बाजरा को प्रीत करते हुए अनुभव करता है।

प्रीत ज्वार से करे बाजरा, कुटकी
ब्याह रचाती है।
काचरिया का ढोल बजाकर बनरी
मूंग सुनाती है
पास खड़ा विरवा बबूल का नये 
बराती टेर रहा
उरदा पहुंनई करने को नये संगाती
हेर रहा।

भादों रसिया के आगमन पर कवि का हृदय हुलस पड़ता है और एक नया एल्बम खुल जाता है-

हरी भरी धरती दुल्हन रे भादों
रसिया दूला है,
जिनके संग संग झूम चला रे बन्दों
वाला झूला है,
लाज की मारी बेलें गुमसुम छप्पर
पर बल खायें रे
बदरारी किरणें धरती पर तृण
तक को दुलराये रे।

गांव की चांदनी से कवि मन में उमंग का अनुभव कर मन-मौजी प्राणों से गीतों का राग चला प्रकृति को नये ही रूप में देखता है। चांदनी की सत्ता का आभास उसे संवेदनशील बना देता है।

चमन-मगन जंगल में झींगुर
झंकार उठे,
गुपचुप चकोर मोन मन को संगार 
उठे,
बल खाती शरमायी चन्दा के
गांव की-
तरूओं के पातों पर अटक चली
चांदनी!


डॉ. रामरतन भटनागर के शब्दों में उनने ग्राम को अत्यन्त निकट से देखा देखा है।

'माटी के बोल' की भूमिका में भाई ब्रजभूषण सिह आदर्श ने मनोज जी के इन गुणों की व्याख्या की है। कहा गया है कि मनोज जी आस्था के कवि हैं। यथार्थ को उन्होंने विस्मृत नहीं किया किन्तु नये जागरण के प्रति उनकी दृढ़ आस्था ने प्रगतिवादी कवि की निषेघात्मक धारणा का आवरण दूर रखा है। कवि को दुख दैन्य ग्रसित कृषिकों और मजदूरों के आत्म गौरव और विश्वास पर अटूट श्रद्वा है और वह उन्हें खड़ित नहीं करना चाहता भले ही प्रगति और प्रयोगवादी उस पर नाक भी सिकोड़ें

तुम मेड़ मडे़यों के राजा, तम दुपहर सांग सकारे हो
तुम ही हो माटी के सोना तुम पानी 
हो बदरान हो
तुम सोन चिरैया विरछा का हो
फूले फले समैया
तुम चंदा के भैया, तुम सूरज के भैया!

यहां चंदा और सूरज के साथ भ्रातत्व स्थापित कर कवि ने किसान की कोमलता और कठोरता को जिस खूबी के संजोया है वह मानवोचित गुण है।

'मनोज' ने मानव स्वरूप की जिस देवोपम रूप की कल्पना की है या जिसे खेतों और खलिहानों में देखा हैं उसे अत्यन्त कुशलता से अंकित किया है। मनुष्य की कुरूपता का अंकन प्रकृति के चितेरे से संभव भी नहीं क्योंकि उसकी दृष्टि में में पतझड़ का सौन्दर्य बसन्त श्री से कम नहीं भले ही कुछ विज्ञजन इसे पलायन की ही वृत्ति मानें। 'मनोज' के लिए कविता कसक, विलास या तान मात्र नहीं क्योंकि उसकी दृष्टि में साहित्य का अर्थ हित के साथ है। यही कारण है कि वह  इसी सीमा के भीतर ही प्रगतिवादी और प्रयोगी दोंनों हैं।

सच पूछिए तो मनोज के काव्य को किसी वाद के कटघरे में रखना उनके साथ अन्याय होगा शायद इसीलिए कहा गया है कि छायावादी खेमों में मनोज की कविताएं भले ही स्थान न पाएं, प्रगतिवादी काव्यांतगत ग्राम्य जीवन के सुनिश्चित आकार में भी भले ही उनकी कविताओं को फिट न किया जा सके और प्रयोगवादी भी इन कविताओं को न स्वीकारें किन्तु चूकि इनमें चैपालों में गूंजने की शक्ति है वे ग्रामीणों की धरोहर बनने की क्षमता रखती हैं

लोक गीतों से कवि को प्रेरणा मिली है और उनकी अनेक कविताओं में लोक गीतों की आत्मा ध्वनित हो रही है। ग्रामीण जीवन के चित्रण के लिए परम्परागत लागक संगीत और लोक साहित्य से प्रेरण समीचीन है और माधव शुक्ल मनोज ने इस तथ्य को प्रमाणित भी कर दिया है।

इस संबंध में डॉ. भटनागर की मान्यता है कि भाषा की जनपदीय झलकियां हमें ग्राम की आत्मा के संपर्क में ले आती हैं और लोक गीतों की धुनें हमें एक बार भुला सा देती हैं और इसी को आदर्श जी ने अधिक कलात्मक ढंग से कहते हुए लिखा है ‘‘ कवि ने बुंदेलखंडी लोक गीतों से अपना तादात्म्य स्थापित कर कविता के माध्यम से गीतात्मक भाव धारा को लिरिकल बनाया है। उनकी भाषा के दर्शन, नाद सौन्दर्य, लयात्मक गति और इन्द्रधनुषी भव रूपों के कारण चटकदार बन पड़ी है।

मध्यप्रदेश के तरूण कवियों में मनोज जी से अनेक आशायें हैं उनके काव्य में जिस तन्मयता के दर्शन होते हैं यदि उसमें चिंतन का समावेश और हो जाये तो वह और अधिक उज्जवल रूप धारण कर सकेगा


निर्द्वन्द

नई दुनिया जबलपुर
29 अप्रैल 1962

राष्ट्रीय जनजागरण एकता यात्रा दल

साहित्यकार को जनमानस से जोड़ने वाले कवि मनो


साहित्यकार को जनमानस से जोड़ने वाले कवि मनो
नई  दुनिया 30 अक्टूबर 89 , साक्षात्कार- भोलाराम भारतीय


माधव शुक्ल मनोज हिन्दी और बुंदेली भाषा के जनप्रिय कवि है। उन्होंने रचनाकार को समाज की समस्याओं से रूबरू करके परिवर्तन का वाहक बनाने के लिए अभिवन कार्यक्रम शुरू किया है। इसके तहत कवियों का दल गांवों-कस्बों में जाकर वहां के जनमानस को संदेश दे रहा है।

साहित्य कला एवं संस्कृति का न कोई संप्रदाय होता है और न ही कोई जाति। समाज को नई दिशा देने और चेतना जागृत करने में साहित्यकार की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। पिछले कुछ समय से देश में साम्प्रदायिकता रूपी विष बेल ने अपने लतायें फैलाना शुरू कर दी हैं। हालत यह है कि एकता, भाईचारे और विश्वास के हरे-भरे पौधे मुरझाने लगे हैं। तथा लोग एक-दूसरे को अविश्वास की दृष्टि से देखने लगे हैं। ऐसे में साहित्यकार का मन उद्वेलित होना स्वाभाविक है।

राष्ट्रीय एकता कायम रखने के लिए बुंदेली एवं हिन्दी के इस लोकप्रिय कवि ने अभिनव राष्ट्रीय मौलिक कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की। वर्ष 1988 में सागर नगर के कवियों, शायरों, गायकों, वक्ताओं, पत्रकारों, व कलाकारों को एकता यात्रा दल के रूप् में संगठित किया गया। दल के सदस्यों ने सागर जिले के लगभग 50 ग्रामों में समर्पित भाव से भाईचारे की भावनाऐं उजागर करने तथा जनमानस को प्रेरित करने का संकल्प लिया।

श्री मनोज का कहना है कि उन्होंने यह कार्य एक नेता की तरह नहीं, बल्कि एक निःस्वार्थ जनसेवा की भावना से किया है, तभी इस कार्य को राजनीति से परे एक भावनात्मक एवं रचनात्मक कार्य की संज्ञा दी गई हे। उनहोंने एकता यात्रा दल के सभी दलों के लोगों को एकता बंधुतव तथा देश प्रेम में अमन-चैन की बात करने के लिए आमंत्रित किया है।

इस राष्ट्रीय एकता यात्रा दल का पहला कवि सम्मेलन वर्ष 1988 के प्रथम दिवस में ग्राम , 'सुरखी' में हुआ। इसके बाद श्री मनोज के नेतृत्व में योजनानुसार अन्य गांवों, कस्बों में कवि सम्मेलन आयोजित किए गए।

श्री शुक्ल ने ग्रामीण अंचलों में ही कवि सम्मेलन आयोजित करने के औचित्य की चर्चा करते हुए कहा कि वर्तमान समय में साम्प्रदायिक तनाव उपद्रव हिंसा की भयावहता बढ़ रही है और विभिन्न सम्प्रदायों में एक दूसरे से भयभीत होने की भावना प्रबल हो रही है।

यह स्थिति हमारी राष्ट्रीयता व सद्भावना को कमजोर बना रही है। गांवों में बसे लोगों का धार्मिक अंधविश्वासों की जमीन में जकड़े होना इसका मुख्य कारण है।  इसके अलावा राष्ट्रीय भावना को मजबूती देने वाले विचार भी उन तक नहीं पहुंच पाते हैं। इस खालीपन को दूर करने हेतु गांवों और कस्बों में जाकर राष्ट्रीय एकता सद्भावना कायम करने के लिए प्रयास करना जरूरी हो जाता है। एक कवि होने के नाते मैंने कवि सम्मेलनों के माध्यम से जनजागृति लाने का प्रयास किया है।

कवि श्री माधव शुक्ल मनोज ने बताया कि कवि सम्मेलन के पूर्व गांव के सरपंच और पंचों से सम्पर्क करना ही पड़ता है। उन्हें अपने दल का उद्देश्य बताकर कवि सम्मेलन के आयोजन के लिए रजामंद करने के बाद उनकी ही सुविधानुसार तिथि तय करना पड़ती है।

कवि सम्मेलनों में पढ़ी जाने वाली कविताओं के बारे में श्री मनोज ने कहा कि हमने विशेष रूप् से ओजस्वी कविताओं के माध्यम से ही प्रयास किया है कि व्यक्ति राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़े, सामाजिक कुरीतियों को त्यागे। साथ ही सभी को समाज के प्रति अपने कर्तव्यें का एहसास कराने व प्रत्येक-छोटे-मोटे हिंसक कार्य का समाज और देश पर कैसा प्रभाव पड़ता है यही बताने का प्रयास कविताऑ के जरिये किया जाता है।

श्री शुक्ल नगरीय और ग्रामीण क्षेत्र के स्कूलों में किशोर अवस्था के छात्र-छात्राओं के बीच पहुचकर कवि सम्मेलन आयोजित कर रहे है।। इस बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि एक अध्यापक होने के नाते मैं यह आवश्यक समझता है कि हम उन नए अंकुरों को साम्प्रदायिकता, वर्गभेद की धिनौनी छाप से बचाएं। अनुशासन, जागरूकता, देश-प्रेम, नई चेतना लाने के लिए माध्यमिक एवं हाई स्कूल के लिए छात्र-छात्राओं के बीच पहुंचकर प्रगतिशील राष्ट्रीय भावना की ज्योति प्रज्जवलित की जाए, आज के छात्र-छात्राएं ही कल के कर्णधार होंगे। इस भावना को लेकर नगरीय एवं ग्रामीण स्कूलों में भी दोपहर दो से सायं साढ़े चार बजे तक एकता यात्रा दल द्वारा कवि सम्मेलन आयोजित किए गए हैं।


एकता यात्रा यात्रा दल के कवि सम्मेलनों की खूबी यह है कि  इसमें राजनीतिक एवं सामाजिक दलों लोग सम्मिलित होने हैं। उन्होंने इस बारे में विस्तार से बताया कि दल के कवि सम्मेलनों में किसी मंत्री, नेता, वक्ता, विधायक, पत्रकार अथवा समाजसेवी को मुख्य अतिथि के रूप् में आमंत्रित किया जाता रहा है। ग्राम संस्था की ओर से अध्यक्ष का चयन होता है। अब तक दिनकर राव दिनकर? श्रीमती अरविंद पाठक कणिका, श्री निर्मल, टीकाराम त्रिपाठी ‘रूद्र’ नवाब दूलहा, यार मुहम्मद ‘ यार’ अखलाक सागरी, देवीसिंह राजपूत, हर्षकुमार हर्ष, शिखरचंद जैन आदि काव्य पाठ कर चुके हैं।

नई  दुनिया 30 अक्टूबर 89 साक्षात्कार, भोलाराम भारतीय

आधुनिक बुन्देली कविता के सन्दर्भ मैं माधव शुक्ल 'मनोज' के काव्य का अनुशीलन

आधुनिक बुन्देली कविता के सन्दर्भ में काव्य का अनुशीलन


लघु शॊध प्रबंध

2 0 0 7 

अतुल कुमार श्रीवास्तव 


माधव शुक्ल ‘‘मनोज‘‘ के काव्य पर एक दृष्टि
    माधव शुक्ल ‘‘मनोज’’ बुन्देली और खड़ी बोली के जनप्रिय कवि है। वे 1947 से कविताएं लिख रहे है खड़ी बोली और बुन्देली में फैला इनका रचना काल पचपन वर्शो से भी अधिक का है। उनका समूचा काव्यसृजन ग्राम्यानुभूति में डूबा हुआ है।
    जीवन के इस तमस में आस्था का दीप जाने वाले कवि मनोज का जन्म 1 अक्टूबर 1930 केा हुआ था। ये संघर्शो में पलेे बड़े इन्होंने जीवन में कई उतार चढ़ाव देखे, मन में चाह होते हुए भी ये उच्च शिक्षा प्राप्त न कर सके और परिस्थितियों से समझौता कर सागर के परकोटा में किराने की एक छोटी सी दुकान चलाने लगे । कभी शाम को मित्रों के साथ रामायण मंडली में बैठते ओर छोटी मोटी तुकबंदी किया करते और इसी तरह मन में कविता के अंकुर फूटे। उनका कण्ठ भी बड़ा सुरीला था, लोग उन्हें अक्सर गायक के रूप में याद करते थे।
    एक बार इन्होंने अपनी कुछ पंक्तियां लिखी थी और मित्रों के आग्रह पर ये सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष आचार्य नंददुलारे वाजपेयी जी से मिलने गये । उन्होंने इनकी बहुत प्रशंसा की व कहा कि आप में जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा दिखती है। फिर इसी तरह इन्हें मित्रों एंव अन्य विद्वानों की प्रशंसा मिली एवं इनकी काव्य यात्रा प्रारंभ हुयी। आपका प्रारंभिक कविता संग्रह ‘‘सिकता कण’’ है। यह संग्रह 1952 में प्रकाशित हुआ।
    इनका जन्म व लालन पालन एक कृषक परिवार में होने के कारण उनके ग्रामीण संस्कार गॉवों का सजग चित्रण करते हैं। वही दूसरी ओर मनोज जी बताते है कि जब वह शासकीय प्राथमिक शाला में शिक्षक बने तो गॉव में ज्यादा रहना पड़ और ग्रामीण परिवेश ने इनके मन में गहरी छाप छोडी इसलिए इनकी काव्यधारा में ग्रामीण जीवन की अनुभूतियॉ केन्द्र में है। ग्रामीण जीवन को उन्होंने कल्पना की आॅख से नहीं देखा वरन् उसी में डूब कर उनकी अनुभूति ने अभिव्यक्ति पायी है।
    यूॅूं तो बुन्देली में मनोज जी के समकालीन कई उम्दा कवि हुए किन्तु लोक जीवन को काव्य में उतारने में इन्होंने पूर्ण सफलता प्राप्त की है। उनके समय के कवि अपने घरानों संस्कारों, मान्यताओं एंव सीमाओं के घरे में बैठे रहे, वही मनोज जी ने काव्य के परिवर्तनशील युग की नयी काव्यधारा से सम्बंध स्थापित कर अपनी जागरूकता का प्रमाण दिया। और इसी कारण इनका कृतित्व सर्वाधिक विकसनशील और गतिशील रहा है। माधव शुक्ल ‘‘मनोज‘‘ के अभी तक निम्न कविता संग्रह प्रकाशित हुए है ः-
1.    सिकतागण (1952)
2.    भोर के साथी (1956)
3.    माटी के बोल (1960)
4.    एक नदी कण्ठी सी (1956)
5.    नीला बिरछा (1991)
6.    धुनकी रूई पेट पौआ (1992)
7.    जिन्दगी चंदन बोली है (1993)
8.    जब रास्ता चैराहा पहन लेता है (1997)
9.    मै तुम सब (2000)
10.    एक लॅगोटी बारौ (2001)
माधव शुक्ल ‘‘मनोज‘‘ ने चैका ग्राम मे शिक्षक रहते हुए अपनी काव्य यात्रा प्रारम्भ की इनका पहला काव्य संग्रह ‘‘सिकताकण’’ खड़ी बोली में रचा गया। किन्तु ग्रामीण परिवेश में रहने के कारण इनका मन बुन्देली की तरफ गया और फिर उन्होंने बुन्देली में अद्भुत काव्यधारा की रचना की। ग्रामीण वातावरण काव्य के प्रति मोह उत्पन्न करने में समर्थ रहा । इतना ही क्यों, उनके आस-पास फैली हुई प्राकृतिक छटा भी उनके हृदय में कविता के भाव जगाने में पर्याप्त सफल हुई। उन्हें कविता की प्रेरणा ही प्रकृति से मिली। इस संबंध में उनकी स्वीकारोक्ति भी है कि कविता के लिए ग्राम का परिवेश खेत- खलिहानों ने प्रेरणा का काम किया ।
माधव शुक्ल मनोज का दूसरा काव्य संग्रह 1956 में प्रकाशित हुआ ‘‘भोर के साथी’’ इस संग्रह में रचनाओं की संख्या अधिक नहीं है पर भाषा “ौली एंव छन्द विधान के क्षेत्र में नये प्रयोग किये हैं -
    चरवाहे की बजी बंसुरिया जंगल गूंजा रे ।
    गौओ की टेाली में जैसे कान्हा गाय रे ।
    यमुना जैसी जंगल मे से नदिया ढुलक चली ।
    हरे पहाड़ों में से रस की धारा छलक चली ।
( भोर के साथी )
‘‘ भोर के साथी’ की भूमि में डॉ रामरतन भटनाकर ने लिखा है कि जनपदीय काव्य लोक गीतों का ऋणी एवं उत्तराधिकारी हैं। उसमें साहित्य चेतना की कमी नहीं है, परन्तु नागरिक संस्कारों से वह अछूता हैं और साहित्यिक परम्परा का निर्वाह उसमें नहीं है। 1936 के बाद काव्य क्षेत्र में ये दो धारायें साथ-साथ चलती हैं। इस संदर्भ में कवि मनोज की यह रचना निःसन्देह अभिनन्दनीय है, इस छोटी सी रचना से भी कवि का प्रगतिशील और प्रयोग रूप स्पश्ट हो जाता है। और उसकी शक्ति का पर्याप्त परिचय होता हैं। कवि अपने नागरिक संस्कारों के प्रति संदेहशील है । वह भाषा शैली, गीत, स्वर, छन्द, विशय और अभिव्यंजना सभी क्षेत्रों सम्बंधी सभी मान्यताओं को त्याग कर संभावनाओं के विशाल सागर में विचरण करता हैं। इस प्रकार उसने अपनी भाव भूमि का विस्तार किया है और नयी पीढ़ी के नये सपनों को लोकवाणी दी है।1
कवि ने गांवों के चित्रों को गॉवों की भाषा में ही सवारा है। उसकी शब्दावली ग्रामीणों की बोलचाल की भाषा है और स्वर लहरी भी प्रेशणीय तथा लोकप्रिय है। गांव के जीवन तत्व और उनके सामाजिक संस्कार कहीं कहीं बड़े मधुर रूपक बॉधते है ‘‘हॅसते ज्वर के कुंज’’ और ‘‘भादों रसिया’’ कविताओं में प्रकृति को मानवीय संस्कारों में बॉध दिया हैंः-
प्रीत ज्वार से करें बाजरा, कुटकी ब्याह रचाती हैं।
कचरियॉ का ढोल बजा के,
    बनरी मूॅग सुनाती हैं
पास खडा बिरवा बबूल का,
    नये बराती टेर रहा।
उरदा पहुॅनाई करने को,
    नये संगाती हेर रहा।
ज्वार कुंज के तले बैठ कर
    मंडप नींद रही गोरी ।।
( हॅसे ज्वार के कुंज@ भोर के साथी )
इसी तरह ‘‘ भादो रसिया’’ में भादों का चित्रण करते हुए कवि गाता है-
भादों का है हरा दुपट्टा,
    सिर पर पगिया बादल की ।
आॅखे जूही चमेली जैसी,
    कोरे काली काजल की
सूरज इन्द्र धनुश की,
    रेखा चमक-दमक बिजली जैसी
सॉस नशीली देह सुहानी,
    गेहॅू की कजली जैसी ।
गॉव की पगडण्डी, चरवाहे, सॉझ-सुबह चॉदनी और धूप ये सभी कवि को संवेदना से भर देती है।
म.प्र. के प्रतिनिधि साहित्यकार में टी.दिनकर ने लिखा है कि आम जन की जिन्दगी किन किन परिस्थितियों से गुजरती है इसका चित्रण मानवता के उज्जवल भविष्य के साथ मनोज ने किया हैं। फिर मनोज के मन का कवि इस संदर्भ में पुरानी शब्द योजनाओं को दुहराने वाली काव्य गति से ऊबकर एक छोटे से गॉव में चला जाता हैं, और लेाक गीतों की धुनों में झूमता हुआ अपनी भावनाओं को और भी सुन्दर बना देता हैं।2
इस प्रकार कवि मनोज का प्रगतिशील रूप स्पष्ट हो जाता हैं। वे सभी मान्यताओं को त्यागकर संभावनाओं के विशाल संसार में विचरण करता हुआ अपनी भाव भूमिका का विस्तार करते हैं। और नयी पीढ़ी के नये सपनों को लोक वाणी देते हैं। कवि ने ग्रामों को अत्यंत निकट से देखा हैं। इसलिए उसके लोकरंग में रंगे हुए ग्रामीण परिस्थितियों के चित्र सच्चाई और ईमानदारी के साथ ग्राम की आत्मा के संपर्क में मुखरित हो उठते है जैसे ः-
हरे भरे से गांव में ।
    सूरज सोना सा बरसाये ।।
धरती बिरछा पात हो,
    हॅसे दूधिया चॉद चॉदनियॉ,
गोरी-गोरी रात हो,
    हरियाली की गोद चूमती
नदिया बहे बहाव में।
    हरे भरे से गॉव में ।
( भोर के साथी )
माधव शुक्ल मनोज का तीसरा कवि संग्रह ‘‘माटी के बोल’’ प्रकाषित हुआ इस समय तक मनोज जी एक अच्छे युवा कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। माटी के बोल की कविताओं से कवि के प्रकृति प्रेम के अतिरिक्त जिस अन्य विशेष गुणों की ओर ध्यान केन्द्रित होता हैं, वह है दृढ आस्था और लोक गीतों से कवि का तादात्म्य।
‘‘माटी के बोल’’ की भूमिका में ब्रज भूशण सिंह ‘‘आदर्श’’ ने मनोज जी के इन गुणों की विस्तृत व्याख्या की है। कहा गया है कि मनोज जी आस्था के कवि हैं। यर्थाथ को उन्होंने विस्मृत नहीं किया है कन्तु नये जागरण के प्रति उनकी दृढ आस्था ने प्रगतिवादी कवि की निषेधात्मक धारणा का आवरण दूर रखा हैं। कवि को दुखों से ग्रसित कृशकों और मजदूरों के आत्म गौरव और विश्वास पर अटूट श्रद्धा हैं, और वह उन्हें खंडित नहीं करना चाहता है।3
    तुम मेड़ मड़ैया के राजा,
        तुम दुपहर सॉझ सकारे हो।
    तुम ही हो माटी के सोना,
        तुम पानी हो बदरारे हो ।
    तुम सोन चिरैया बिरछा के,
        कहो फूले फलै समैया
    चतुम चन्दा के भैया,
        तुम सूरज के भैया
( माही के बोल )
    यहॉ चंदा और सूरज के साथ भ्रातत्व स्थापित कर मनोज जी ने किसान की कोमलता और कठोरता को किस खूबी के साथ संजोया है, यह मानवोचित गुण है।
    निद्र्वन्द जी ने लिखा है कि उन्होंने मानवस्वरूप की जिस देवोपम रूप की कल्पना की हैं या जिसे खेतों ओर खलिहानों में देखा है, उसे अत्यन्त कुषलता से अंकित किया हैं। मनुश्य की कुरूपता का अंकन प्रवृति के चितेरे से संभव नहीं क्योंकि उसकी दृश्टि में पतझड़ का सौन्दर्य बसन्त जी से कम नहीं भले ही कुछ विद्वान इसे पलायन की ही वृति माने । मनोज जी के लिये कविता कसक, विलास या तान मात्र नहीं क्योंकि उसकी दृष्टि में साहित्य का अर्थ हित के साथ हैं। यही कारण है कि वह  इसी सीमा के भीतर ही प्रगतिवादी और प्रयोगी दोनों हैं।
    मोरे अंगना में कंगना खनके रे ।
        मोरी नाचे राम दुलैया रे ।।
    मोरी मेड़ मड़ैया हरियानी ।
        मोरी ताल तलैया लहरानी ।।
    मोरे चंदा सूरज से खेतों में ।
        मोरी दमके नैन तरैया रे ।।
    मोरी नाचै राम दुलैया रे ।
(नीला बिरछा@ 65 )
    कवि ने खेत खलिहानों से अधिक निकटता स्थापित की है और उनकी तनमयता ने चित्रों को मनमोहन रंग दिये हैं। मनोज जी के बोल सशक्त है इसका कारण है कि वे ग्रामीण पाठ “ााला मंे अध्यापक और ग्रामवासी रहे हैं। उनकी काव्य की विशेषता ग्रामीण जीवन एवं प्रकृति की विस्तृत छविया हैं ः-
    चक्की के पाटों का राग उठा घरर-घरर ।
    मटी के घर में जगा धुंधले सुबह का पहर ।
    चक्की की सुरधुन सुन रोंथ रही गैया ।
    चक्की चलाय गोरी गाये झूम रैया ।
    मनोज जी ने बुदेल खंडी लोक गीतों से अपना संबंध स्थापित कर कविता के माध्यम से गीतात्मक भाव धारा को लिरिकल बनाया है। जैसे ः-
    ऊॅची टगर मेरा गॉव@ नदिया नीेच बहे ।
    मनोज जी के प्रकृति चित्रण में धरती के सपने और माटी की गन्ध का आधार है, कल्पना से उसमें और मनोहरता आयी हैं ‘-
    गेहॅू धन,
    खेतों झूमे, फगुनवा ।
    घूटन-घूटन हो
    खेतो मंे आगई
    गेहॅू की बालें
    नाचे बसन्ती बयार ।
    फूलो मन
    धरती को महके अॅगनवा
    खेतों में झूमे फगुनवा ।।
    धूप भरे फागुनी दिन को कवि अनन्त संभावना वाला मानता हैं, बसन्ती बहार को शब्दों में बॉधता है, बसंती बहार रास्ता बुहारती है और खेतों में गेहॅू के रूप में फागुन ने अपनी दस्तक दी हैं।
    मिल जुर गा रई चार जनी ।
    माटी में तुम हीरा की कनी ।।
    ले रओ हिलोरे ई तन में जिया ।
    बैलो खों हॉक रये मोरे पिया ।
    देखूॅ मै उन खों बनी ठनी ।
    माटी में तुम हीरा की कनी ।।
(नीला बिरछा @ 69)
    ग्रामीण नारी की तुलना कवि हीरा से करता है। जब किसान बैलों को खेतों में हॉकता हैं तब उसका वह रूप देखकर कवि का भी मन पुलकित हो उठा हैं।
    चलों चलों खेतों में आ गओं कुवॉर ।
    साहुन निकर गओ रे,
    भादों निकर गओ
    बोले चिरैया
    कूरा ने रेवे पुआॅर ।
    चलो-चलें खेतों में आ गओ कुवॉंर ।।
( नीला बिरछा )
    यहॉ प्रकृति का स्वतंत्र आकर्षक चित्रण हैं जिसमें कुवॉंर के महीने की झॉकी भी रूपायित हुई है।
    चले अईयों हो,
    अॅगना के फूल खिला जइयों
    ऊपर है बादर नीचे हैं धरती
    परती के भाग जगा जइयो ।
    चले अइयों हो,
    अॅगना के फूल खिला जइयों ।
(नीला बिरछा@ 48 )
    प्रकृति की छटा में मग्न कवि का मन सूरज का आहवान करता हैं। उनका मानना है। कि सूरज पूरब से आयेगा और धरती में रंग भर देगा। इस तरह मनोज जी के काव्य में सृजन विकास को देखा जा सकता हैं ।
    अपनी सोन चिरैया ।
    अपनी भोर तरैया ।।
    खेत किनारेे एक मेड़ पे ।
    अपनी राम मडै़या ।।
    चहचहात हुइये भुनसारो ।
    दुलराहें पुरबैया ।।
    अपनी सोन चिरैया ।
( नीला विरछा @ 120)
    मनोज जी के काव्य में ग्रामीण अंचल का नैसर्गिक सौदर्य चित्रित हुआ है। यह वह काव्य है जिसमें छोटी सी सोन चिरैया माधुर्य और सौदर्य की अक्षय राशि बन गयी हैं।
    कवि का जुडाव प्रारम्भ से ही गॉवों की और रहा है, और उनकी तन्मयता ने उसके चित्रों को मनमोहक रंग दिये है। भाशा की जनपदीय झलकियॉ ग्राम की आत्मा के संपर्क में ले आती है।
    छिप गई बादर की नन्ही तरैया ।
    झूम उठी पुरवा ले तरू की बलैया
    चहक उठी नाच उठी डाल पे चिरैया ।
    सूरज खों चूम उठी किरणों की बैयां ।
( भोर के साथी)
    कवि सोचता है कि क्षितिज में दूर तक फैली एक के ऊपर एक उठी ये किरणों की श्रृंखला, मदमस्त चलती हवा और खेतों में दिखती हरितिमा किसी भी मनुष्य को अपने महान सम्मोहन में डुबोकर कुछ समय के लिए भुला सकती हैं।
    ‘‘मनोज जी’’ ग्रामीण चित्रों के कुशल चितेरे हैं, उनका काव्य प्रकृति की मधुर चित्रशाला हैं। उसमें ग्रामीण संस्कृति का सूक्ष्म और गंभीर चित्रण मिलता हैं। उन्होंने ग्रामीण अंचल के कोमल स्वरूप के प्रति अनुराग प्रदर्शित करते हुए उसका आकर्षक और सजीव चित्र प्रस्तुत किया हैं उनके काव्य को कहीं से भी पलटिए ग्रामीण परिवेश की मोहक और उदात्त छवियॉ मुस्कराती मिलेगी जैसे ः-
    मनचंगी गंगा नहा लई पिया ।
    जंगल में मंगल मना लय पिया ।।
    बैठी हैं माटी पे ऊॅची कगरियॉ ।
    फैली है मेड़ों पे पैनी बबुरियॉ ।।
    कॉटो पे मंदिर बना लय पिया ।
    जंगल में मंगल मना लय पिया ।।
( नीला बिरछा @ 45 )
    कवि ने मेहनतकश किसान के श्रम की कीमत को समझा है उनका मन माटी के प्राकृतिक गुणों से युक्त हे। उनके अंदर वह सिनग्धता है, स्नेह हैं जिससे वह सहज रूप से सबकों अपने अंक में समेट लेते है। और ऐसा होने पर ही खेतों, खलिहानों, चैपालों झोपड़ियों और ग्रामीण अंचल की रागात्मक छवियों को स्वरूप दे सके हैं ।
यथा ः-
    छाती में उठे हिलोर,
    इमली पे बोले परेवा ।
    खेतों में कंचन हैं,
    फसलों का नंदन है।
    मेड़ क मडै़या पर,
    आशा का चंदन हैं ।
    गाती है अलबेली मोर,
    इमली पे बोले परेवा ।
(नीला बिरछा @ 27)
    मनोज जी ने जिसका अहसास किया वही उन्होंने अपने काव्य में उतारा हैं, यहॉ झरते हुए कनेर के फूल आतुरता और अधीरता के साथ पिया से मिलन को उकसाते हैं । कवि की गॉव की गोरी विवशता से पिया की बाट जोह रही है।
जैसे ः-
    कब से देखुं बाट पिया की
        लौट अबहुॅ नहि आये रे।
    झर गई चंपा, झर गई बेला ।
        झर गये फूल कनेरा ेर ।
    राह देखती, बाट जोहती,
        देखूॅ कौन डगरिया रे ।
    फरर-फरर पुरवैया बेैरिन,
        खींचे रोज चुनरिया रे ।
    झर गई चंपा, झर गई बेला ।
        झर गये फूल कनेरा रे ।
( नीला बिरछा @ 79)
    मानवीय संबंधों की प्रगाढ़ता जिस रचनाकार में होती हैं उसकी रचना उतनी ही दीर्घजीवी और प्राणवान होती हैं । कवि पुकारता है थके पॉवों को वह बताता हैं आम की गहरी छॉव गॉव की ठंडी हवा और कुएॅ का “ाीतल पानी ः-
    ठॉव-ठॉव बैठ चलो,
        पॉव-पॉव की पुकार ।
    दुखयारे बहुत खड़े खेतों के आस-पास ।
    तुमखों लो टेर रही, माटी से दौड़ सॉस ।
    नगरों के भैया ओ, अमवा का पेड़ हैं।
    ठण्डी सी पुरवेया, हरी-हरी मेड़ हैं।
    गॉव-गॉव ठहर चलो छॉव-छॉव की पुकार ।
(नीला बिरछा @ 36 )
    आगे चल कर मनोज जी ने संघर्षशील वातावरण में डूब कर जिन प्रगतिशील भावनाओं को अपनाया हैं, वे प्रगतिवादी युग की सराहनीय कड़ी हैं। उनके इस काव्य में एक वर्ग एक समाज, एक समुदाय का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है। इन कविताओं में स्वाभाविकता सरलता मजदूर वर्ग की अनुगामी संघर्र्षशीलता, चेतना, निम्न वर्ग के प्रति सहानुभूति, युग का यर्थाथ एवं कल्पनाओं, भावनाओं, विचारों का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है।4 यहॉ मजदूरों जमीन से जुड़े लोगों की आवाज कवि के अंतस से आती प्रतीत होती है जैसे -
    आई हिलोर फटें छाती ।
    दुख दूना रे ! दुख दूना रे !
    इन अखियन से, ।
        टप-टप टपकी ।।
    बिन बोले असुवन, ।
        की बुंदिया ।।
    इन खेतों में जब दिन डूबा ।
        भर आई साजन की सुधियॉ  ।।
    कोई न मीत हुआ अब तक ।
        थोड़े से जीवन की देहिरा  ।।
    झकझूना रे ! झकझूना रे !
( नीला बिरछा@ 37 )
    कवि मानवीय स्नेह के आधार पर कविता में आम आदमी का चित्रण करता हे। जब तक रचनाकार आम आदमी की संवेदनाओं को नही समझता तब तक उसे जीवन का यथार्थ अनुभव और मानवीय चेतना की वास्तविकता का गहरा बोध नहंी होता। मनोज जी ने देहाती आदमी के आभावों, तनावों और उत्तेजनाओं का सीधा साक्षात्कार किया है और धरती उनके लिये सब कुछ है इसलिए धरती माता की वह आराधना करते है ः-
    मार कुदाली धरती में, ।
        मार कुदाली परती में ।।
    जय-जय धरती मैया की ।
        खेतों की, खलिहानों की ।।
    मेड़ों की, मैदानों की ।
        सूरज, अंबर बादल की ।।
    मौसम की, पुरवैया की ।
    जय-जय धरती मैया की !
(माटी के बोल )
    दरअसल जिस कवि की अनुभूति जितनी तीव्र एवं सघन होगी उतनी ही तीव्र उसकी अभिव्यक्ति की छटपटाहट और बैचेनी भी होगी। ऐसा काव्य वैचारिक धरातल पर बहुत सर्तक, जागरूक और समय के अनुकूल होगा, उसमें गहराई सच्चाई और विस्तार होगा।
    जो अनुभूत नहीं वह साहित्य भी नहीं है। रचना रचनाकार की भट्टी में पिघलकर निकलती है। इसलिए उसमें अनुभूति की चमक होती है, ओर वह नई भी होती है। जो कुछ अनुभूति का विषय नहंी बन सका, वह साहित्य की सीमा के अन्तर्गत नहीं  आता क्योंकि अनुभूति मंे ही वह शक्ति निहित है कि मनुष्य के मर्म का स्पर्श करें और उसकी संवेदन का विस्तार करे जो साहित्य का स्वीकृत धर्म है।5
    ‘‘मनोज’’ जी को अपनी कविता और आॅसुओं से गहरा लगाव है। वह पूरी गंभीरता और तन्मयता से इन गीतों को गाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें विश्वास है कही न कही किसी न किसी को ये गीत प्रभावित करेंगे, उनके आॅसू निष्प्रभाव नहीं है ः-
    टूटी डगाल रे ।
        रमुआ के बाग की ।।
    मुरझाई ऐसी जैसे बिछड़ा हो संग ।
    पत्तों में रोता है, बिरछा का रंग ।।
    पीर जाने कितनी है, रमुआ के भाग की ।
    टूटी डगाल रे, रमुआ के बाग की ।।
    इसके अलावा मनोज जी ने कुछ बुदेली छक्के भी लिखे जो उनकी ईमानदारी और साहसिकता के प्रमाण हैं। अनुभवों पर आधारित साधारण सी कविताएॅ भी मन को छू जाती है। इन कविताओं के माध्यम से उन्होंने कृत्रिमता और व्यवस्था के खोखले पन को उजागर किया है जैसे ः-
    बा सरकार तुमाई आय ।
        जा सरकार हमाई आय ।।
    छीना-झपटी ।
        चोर बजारी ।।
    सरसा जैसी ।
        है मों बाय ।।
    दल के दल ।
        दल दल में फॅस गये ।।
    लपकी गाय ।
    गुलेंदों खाय ।।
    जा सरकार हमाई आय ।
(नीला  बिरछा@ 127 )
    मनोज जी ने लोक जीवन के साथ-साथ इसी लोक में जो दूसरा वर्ग है, जो अत्याचार करने में कुशल हैं, शोषण करने में शीर्ष पर हैं। अपने वैभव के मद में अन्धा हो कर मनुष्य को मनुष्य नहीं समझता इस वर्ग को भी कवि ने सत्य रूप में प्रस्तुत किया है ः-
    अपनी धुन में भूले।
        देखो फुकना से फूले ।।
    महल अटारी ।
        डार कें डोरी ।
    झूल रहे है झूले ।।
        बना रही है आज गरीबी ।
    सड़कों पे घर घूले ।।
        देखों फुकना से फूले ।
(नीला विरछा)
    हम विचार करे तो पॉयगे कि मनोज जी मात्र भावनाओं के कवि नहीं है, वे तो लोक से जुड़े हुए कवि है। उनकी लोक दृष्टि के घेरे में समूचा लोक जीवन अपनी पूरी वास्तविकता और गुण-दोषों के आया है। यही कारण हैं कि कवि एक ऐसे रूप में हमारे सामने आता है, जो भावनाओं के संसार में नहीं बहता बल्कि सच का सामना करता है, और दूसरे व्यक्तियों को भी देखता हैं। इस प्रकार के देखने में मनोज जी ने निश्चित ही उस व्यक्ति को अधिक सूक्ष्मता से देखा हैं जो खूब मेहनत करता है और बदले में कुछ खास नहीं पाता जैसे ः-
    तो खों, मो खों, ओ खों ।
        केत-केत मो सूखेां ।।
    भुनसारें से राशन लेवे ।
        दिन डूबे लो खूंॅतों ।।
    चिल्ला चिल्ला सो गओं हुइये ।
        घर में मोड़ा भूखों ।।
    केत केत मो सूखों ।
इसी प्रकार ः-
    अपनो मतलब सॉटो ।
        सब की पत्ती काटों ।।
    मिल जुर के छाती में छेदों ।
        फूल बता कें काटों ।।
    सब की पत्ती काटों ।
( नीला बिरछा )
    मनोज जी का एक और काव्य संग्रह है ‘‘धुन की रूई पे पौआ’’ इसमें उनकी नयी शैली में बुदेली कवितायें संग्रहीत है। इन कविताओं में शैलीगत नवीनता सरल शब्द योजना, गहरी अभिव्यक्ति और मंत्र मुग्ध करने वाली चित्रोपयता मनोज जी को नयी पहचान देती है।6 प्रायः बुन्देली कवि या तो ईसुरी की फाग शैली  अपनाते है या पद्माकर की श्रृंगारपरक “ौली किन्तु मनोज जी ने इनसे हटकर नवगीत शैली को बुन्देली में स्थापित किया है ः-
    सूखे ककरी को जऊआ ।
        छाती में उगे अकौआ ।।
    सिर के ऊपर आज विपत को ।
        बोलो कारौ कौआ ।।
    ऐसो लगे समय ने धर दओं ।
        धुनकी रूई पे पौआ ।।
    आज हमारा समाज जिस भ्रष्टता की ओर बढ़ रहा है। शोषण और स्वार्थ को ही प्रजातंत्र का मूल्य मान लिया गया हैं। मनोज जी ने राजनीति, उसमें घुटता आदमी, जीवन की सच्चाई, इन्सान की लाचारी उसकी नियति और आजादी की विडम्बना पर सीधा प्रहार किया है ः-
    ओर-छोर ने कहॅू अंत हैं ।
        अपनो प्यारों लोकतंत्र है ।।
    तें भी राजा, मै भी राजा।
        एक चका सो गोल यंत्र हैं ।।
    झाड़ा- फॅूकी अंट संट सब ।
        जादूगर देखों स्वतंत्र है ।।
    अपनो प्यारों लोकतंत्र है ।
( धुन की रूई पे पौआ @ 26)
    मनोज जी के काव्य में चित्रित परिवेष राजनीति और इससे संबंधित अनेक समस्याओं को भी मूलित करता है। हमारे यहॉ जो कुर्सी की राजनीति की परम्परा है कवि उस पर चोट करता है ः-
    जीत जात के बैठे ऊपर ।
        बांॅध लये कुर्सी से गोड़ें ।।
    अपनोई नगर गॉव सब भूले ।
        नाम बड़े है दर्शन थोड़े ।।
( धुनकी रूई पे पौआ @ 14)
    मनोज जी की कविताएॅं स्वस्थ सामाजिक जीवन से जुड़ी है। जब कभी उन्हें सामाजिक जीवन में विकृतियॉ नजर आती है, तो वे न केवल दुःखी होते हैं, अपितु एक स्वस्थ समाज की कल्पना से भरते हुए विकृतियों के पोशकों पर व्यंगात्मक प्रहार करते है ः-
    मटका कें नैना, लचका कें कम्मर ।
        कैसो  दिखा रये कमाल पिया ।।
    देश कौ हो रओ है, इकदम कबाड़ो ।
        छोबी पछाड़ को बन रओ अखाड़ो ।।
    सब कोई अब अपने मन के है राजा ।
        आदर्शो की गिर रई दिवाल पिया ।।
( धुन की रूई पे पौआ @ 44)
    कवि की कुछ कविताएॅ ऐसी हैं जिनमें कवि ने समाज के दुख दैन्य और विषमताओं के चित्र खीचें है जो यथार्थ की भूमिकाओं पर अवतरित है। मनोज जी का जीवन दर्शन बहुत प्रभावित करने वाला है। आत्मा जगत, “ारीर, प्राण, नियंता की असलियत से भी वे बेखबर नहीं है। देखें ः-
    बुरे काम से ऐं कौ तो ।
        ऐब और गुन लेखौ तो ।।
    झार-झूर के अपने मन कौ ।
        कचरा बाहर फैकों तो ।।
    ऐना टॉगों तुम्हारे घर में ।
        अपनी सूरत देखों तों ।।
(धुन की रूई पे पौआ @ 35)
    मनोज जी का काव्य आम आदमी से जुड़ा हुआ है। उन्होंने जो मध्यमवर्गीय परिस्थितियों का चित्रण किया है वह अद्भुत है। उनकी कविता आम व्यक्ति की कविता है ः-
        रात की कुठरिया में।
            सो रओ हैं भुनसारौ ।।
        चिकटे से उन्ना ।
            चरर-मरर खटिया ।।
        मच्छर भगावे खौं।
            गुरसी में धधकत है ।।
        कंडी कौ धुआॅ ।
            माटी के तेल की ।।
        भभकत है डिबिया ।
            करिया सी लौ में ।।
        लिपटौ है उजियारौ ।
            रात की कुठरिया मैं ।।
        सो रओ है - भुनसारौ ।।
( धुन की रूई पे पौआ @ 16 )
    आधुनिक कविता की विशेष प्रवृत्ति के रूप में राष्ट्रीय काव्य धारा का विशेष महत्व है। इसी तरह मनोज जी की कविताओं में भी देशभक्ति और राष्ट्रीय भावों का गहरा प्रसार दिखाई देता हैं ः-
        मिल जुर के अपनी मेहनत से ।
            गॉधी को देश सजैयों, मोरे लाल ।।
        गॉधी जी ने सौंप दओ है ।
            बिरछा जैसो रोप दओ हैं ।।
        फरे और फूले जो निसदिन ।
            खून सींच हरियईयो मेरे लाल ।।
        गॉधी को देश सजैयो । मोरे लाल ।
( नीला बिरछा )
    उन्होंने ‘‘नेहरू की वसीयत’’ कविता में नेहरू जी के भावों को बुदेली में व्यक्त किया है ः-
        हाथ जोड के शीश नवाऊॅ ।
            देश विदेश जहान खों ।।
        वसियत लिख के धर दई हमनें ।
            जनता और किसान खों ।।
( नीला बिरछा @ 96)
    इस तरह से माधव शुक्ल मनोज के कविता संसार में हमें अनेक विविधताएं देखने को मिलती है, लगता है कविता का प्रत्येक पद लोक संगीत का उल्लासित अंग है। इतनी सहजता, ग्राम जीवन से इतनी निकटता बुन्देली कविता में कम ही देखने को मिलती है। मनोज जी का काव्य व्यक्तित्व बहुआयामी है। लोक भाषा में जी रहे मनुष्य की त्रासदी को जिन कोणों से वे उजागर करते हैं। इस संबंध में डॉ. कान्ति कुमार जैन के शब्दों को उद्धृत करना चाहॅूगा ‘‘मनोज ने बुन्देली कविता को एक नई विधा अभिव्यक्ति देकर बुन्देली कविता का प्रतिनिधित्व किया है। नई पीढ़ी उनकी इस मौलिक “ौली, अभिव्यक्ति और नये प्रयोग- प्रतीकों से अवश्य प्रभावित होगी।’’
संदर्भ ः-
1.    भोर के साथी की भूमिका - डॉ रामरतन भटनागर।
2.    म.प्र. के प्रतिनिधि साहित्यकार - टी दिनकर 10.12.61 नई दुनिया ।
3.    माटी के बोल की भूमिका- ब्रज भूशण सिंह ‘‘आदर्श’’
4.    माटी के बोल की भूमिका- ब्रज भूशण सिंह ‘‘आदर्श’’
5.    नये साहित्य का तर्क “ाास्त्र विश्वनाथ प्रसाद तिवारी पृ.14
6.    नवभारत - भोपाल - बटुक चतुर्वेदी ।


बुंदेली स्वांग पाठ

बुंदेली स्वांग पाठ




संपादन-सिपाही, विन्यास, कलायात्रा, सोनार बांग्लादेश

संपादन- सिपाही, विन्यास, कलायात्रा,  सोनार बांग्लादेश,








Wednesday 8 May 2013

बुन्देली भाषा और साहित्य

बुन्देली भाषा और साहित्य
माधव शुक्ल मनोज 
सागर विस्वविद्यालय  के पाठ्यक्रम मैं शामिल

तृतीय वर्ष के हिंदी साहित्य की जनपदीय बोली से संबंदित तृतीय प्रश्न पत्र की पाठ्य पुस्तक
2 0 0 4


प्रकाशन
मध्य प्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी
भोपाल

















जंगल मैं मंगल

माधव शुक्ल मनोज 
जंगल मैं  मंगल
माधव शुक्ल मनोज

जंगल मैं  मंगल 

Sunday 5 May 2013

पंचायती राज के गीत

माधव शुक्ल मनोज 
पंचायती राज के गीत- माधव शुक्ल मनोज





माधव शुक्ल मनोज 

Saturday 4 May 2013

जनपदीय संस्कार गीत

मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड और बघेल खंड अंचल मै प्रचलित संस्कार गीत


बुन्देली संस्कार गीत माधव शुक्ल मनोज 


पेज 2 7 5 से 3 5 2 पेज तक  

बुंदेलखंड के संस्कार गीत-

माधव शुक्ल मनोज 
बुंदेलखंड के संस्कार गीत-माधव शुक्ल मनोज




इसमें संस्कार -विधि-विधान, गीत परम्परा
वैवाहित दस्तूर
कन्या पक्ष की ओर से बारात आगमन पर
वर पक्ष की ओर से बारात लौट आने पर
और अनेक संस्कारों का वर्णन

माधव शुक्ल मनोज






















बुंदेलखंड के संस्कार गीत
प्रकाशन - 1 9 9 5
प्रकाशित - आदिवासी लोक कला परिषद् , भोपाल द्वारा
गीत संकलन-सुधीर तिवारी