Wednesday 19 June 2013

'अ' अनार कौ मोरी बिटिया- माधव शुक्ल ‘मनोज'

माधव शुक्ल मनोज 
'अ' अनार कॊ  मोरी बिटिया 
'अ' अनार कौ मोरी बिटिया

अ अनार कौ मोरी बिटिया
पढ़ हे किताब में
लिख हे स्लेट पे
अ, अनार को मोरी बिटिया।

पहिली पास करहे
फिर दूसरी में जे हे।
अक्षर अुर गिनती खों
गा-गा कें कह हे।
रामायण पढ़ हे ऊ बांच लेहे चिठिया
अ, अनार कौ मोरी बिटिया।

माधव शुक्ल 'मनोज' जी की  हस्तलिखित डायरी  मै कविता 
झांसी की रानी
सीता सी कहानी।
गंगा सी पावन
मोरी बिटिया रानी।
बाबा के हाथों की बन ऊ लठिया।
अ, अनार कौ मोरी बिटिया।

ममता की क्यारी
घर-घर की फुलवारी।
माथे कौ चंदन
ऊ अरचन की थारी।
उड़ जेहे ऐसी जैसे-
आंगन की चिड़िया।
अ, अनार कौ मोरी बिटिया।

इस कविता को मध्यप्रदेश शासन ने अपनी 'बेटी बचाओ अभियान' योजना के प्रचार-प्रसार के लिए स्वरांकित कर जनता को शिक्षा और बेटी के प्रति उत्साहित किया है। यह कवि माधव शुक्ल ‘मनोज’ का सम्मान है जो देश का गॊरव हैं।जनसंपर्क, भोपाल के माध्यम से निर्मित और प्रचारित किया जा रहा है। गीत को स्वर दिया है श्री शिवरतन यादव जी ने जो पिता की अनेकों कविताओं को स्वर और संगीत से संजोया है।

पिता जी ने यह कविता सागर के उनके अपने परकोटा के मकान की छत पर बैठ लिखी थी। पिता अपने आत्म को कवि और शिक्षक रसधारा इतने गहरे पैठाने लगे कि बस क्षण में ही संसार की बाह्य परिधि से केन्द्र में इतनी तीव्रता से चले जाते कि चाय की प्याली खत्म होते-होते एक बड़ी कविता उनमें आकार ले लेती। ऐसे ही समय में स्कूल में पढ़ रही अनेकों छोटी-छोटी बेटियों की याद इस कविता में एक शब्दाकार लेने लगी। अक्सर वे इस कविता को अक्सर बच्चों, स्कूलों के अपने उत्सवों और कभी शिक्षा मनीषियों के बीच सुनाते, इस कविता को उन्होंने कवि गोष्ठी, सम्मेलनों और छतरपुर और भोपाल आकाशवाणी में भी गाया। इस कविता का प्रकाशन पत्रिकाओं में हुआ।

कवि और शिक्षक मन जब लोक के अन्तरमन से जु़ड़ जाता है और जनमन की धडकन से घड़कने लगता है तो ऐसी कविता जैसे बरस-बरस पढ़ती है। पिता जैसे अपनी जटाओं में इस उतरती धारा को समेटने में सिद्धस्थ थे और उसे अपने रस में सराबोर कर नदी बनाना भी जानते थे।

एक बार पिता ने कहा था कि मैं एक कवि सम्मेलन से लौटते कटनी से सागर की ओर आ रहा था कि ट्रेन मैं बैठे मुझे लगा कि जैसे नदी, पहाड़, चरती हुई गायें, उड़ते पंछी, रास्ते में दीखते आते जाते लोग और साथ में यात्रा करते लोगों में  ‘‘मैं ही हूं’’ ऐसी अनुभूति कुछ समय प्रवाहित होती रही और जब इस प्रवाह से जब मैं बाहर आया तो लगा ब्रम्ह की सत्ता की एक झलक से गुजर गया हूं। लगता हूं अब लगातार नया हूं और आदमी से ज्यादा कुछ और ही हूं...

 पिता को जैसा देखा, जाना, समझा वैसा ही लिख दिया है
                                                          आगत शुक्ल 

Wednesday 5 June 2013

बेला-तमाल-बुन्देली गीत नाटिका

माधव शुक्ल मनोज 
बेला-तमाल...माधव शुक्ल मनोज
बुन्देलखंड के सागर गढ़पहरा की एतिहासिक एक नर्तकी और राजा की प्रेम कहानी

इतिहास की मद्धिम रोशनी में टिमटिमाती इस लोक तथ्यों में बिखरी कथा को माधव शुक्ल मनोज ने समझने, माध्यम बनने और प्रस्तुत करने की कोशिश की है।

मनोज जी ने सदैव गांवों के संसार और उसके आसपास बिखरी असहनीय पीढ़ा के बीच आदमी को जीवन जीते देखा है तो उसके उन मर्म को भी जानने की कोशिश की है जिनमें जीवन कभी कभी सुख की अगढाईयां भी लेता है। सुख की क्षणिक कौध और उसकी आशा जीवन को फिर-फिर जीने की ताकत भर देती है।

मनोज जी ने बुन्देलखंड की राई और उनकी नर्तकियों के कलाकार और उनके मन, सौन्दर्य को परखा है और उन्हें समाज में सम्मानीय स्थान दिलाने की पुरजोर कोशिश की है। इस कार्य की सतत् चिन्ता का एक प्रयत्न इस लोक कथा को कहने में स्पष्ट दीखता है।

मुझे याद है जब बेला-तमाल पर काम शुरू हुआ तो मैंने अपने घर की खटखट (बालकनी) से देखा तो पिता को लेने श्री विष्णु पाठक जी जो लोक कला अकादेमी, सागर के डाईरेक्टर हैं...एक जीप लेकर आये, साथ में कैमरा, खाने का साजो सामान और जाने क्या-क्या। वे इस रहस्य रोमांज को जैसे जी लेना चाहते जैसे यही उनके जीवन का सार्थक शिखर हो और वे सब उत्साह में गढ़पहरा को चल दिये।

शाम को वापस आये तो पिता के चहरे पर एक अजीब सा भाव था कुछ विस्मयभरा, कुछ जिम्मदारी सा, जैसे उनका कवि मन बहुत पीछे के दृश्यों को खोजता सा...वे आये और बताने लगे कि शीशमहल में जैसे उन्हें धंधरू की आवाज सुनाई दी थी...राजमहल के आंगन में जिसमें कंघे तक जंगली घांस उगी थी उस बीच में उन्हें एक क्षण के लिए एक राजा और उसके बाजू एक नर्तकी दिखी जो देखते देखते हवा में धुल गई, उनके अंर्तमन को लगातार किसी के आसपास होने की खबर लगती रही और जब उन्होंने नटनी की समाधि को देखा तो वे बहुत भावुक हो गये... और बीते समय के समय सूत्र जैसे उनके अवचेतन से जुड़ने लगे...

अब पिता रात-रात भर इस लोक  कथा को लिखते. हमारे परकोटा वाले घर से यदि दूर देखें तो गढ़पहरा वाली पहली चढ़ाई और उसके बाद गढ़पहरा की पहाड़ी...तो पिता उस ओर दूर देखते रहते...लिखते रहते...सुबह देर से उठते तो कहते... यह जो में लिख रहा हूं ऐसा लगता है कि कोई दूसरा ही इसे लिख रहा है, मुझसे लिखवा रहा है।

चार दिन बीते तो एक आश्चर्य की घटना घटी ...विष्णु पाठक जी ने जो उस दौरान जो फोटो खीचे थे वे बन गये और पाठक जी उसे लेकर घर आये और कहा कि मनोज देखो तो इस फोटो में वे राजा और वह नर्तकी तो साथ दिख रहे हैं। तब वह फोटो कई लोगों को दिखाया... लोग हतप्रभ थे, पिता अस्वस्त हो गये कि नर्तकी की प्रेमकथा सत्य है और पांच दिन बाद वे सभी फोटो एक दूसरे से ऐसे चिपके कि दुबारा कोई नहीं देख सका...

कथा लिख ली गई, पाठक जी और उनकी अकादेमी के अनेक नये-पुराने कलाकारों ने इसे स्वर और संगीत से संजोया, बहुत-बहुत मेहनत की और इसे छतरपुर आकाशवाणी से पहिली बार रिकार्डिंग करके प्रसारित किया गया। अब तक इसे सैकड़ों बार प्रसारित किया जा चुका है। खासकर प्रतिवर्ष लगने वाले सागर के ‘गढ़पहरा का मेला’ जो आषाढ़ के चार मंगलवारों को भरता है अवश्य ही सागर आकाशवाणी के द्वारा प्रसारित किया जाता है।

फिर डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से निकलने वाली पत्रिका ‘ईसुरी’ में कान्तिकुमार जैन जी ने मनोज जी से यह कथा छापने के लिए मांग ली। 8/90-91 के अंक में इसे छापा और इसकी प्रति और पत्र भी मनोज जी को प्रेषित किया।

मुझे विश्वास है कि माधव शुक्ल  मनोज का यह कार्य बुन्देलखंड सदैव याद रखेगा...अब यह कथा धरोहर जो है
इन सबका... चूंकि मैं ही दर्शक था सो कह रहा हूं।

                                                                                                                                                                             आगत शुक्ल












बेला -तमाल
बुन्देली गीत नाटिका--- माधव शुक्ल मनोज

सागर नगर से 10 किलोमीटर उत्तर झांसी की सड़क पर स्थित गढ़पहरा में दांगी शासकों की राजधानी थी। वह पहिले गौंड शासक संग्राम सिंह के आधीन था जिसमें 260 मोजे लगे हुए थे। बाद में कछवाहों के दांगी राजपूतों ने उस पर अधिकार कर लिया। दांगी  शासकों ने पहाड़ी पर दुर्ग को निर्माण कराया।


दांगी लोगों के पराभव के बाद मराठों ने गढ़पहरा से हटकर सागर में राजधानी स्थापित की। पहाड़ी के ऊपर शीशमहल के भग्नावशेष हैं इस इमारत का निर्माण दांगी शासक राजा जयसिंह ने कराया। शीशमहल के पास पहाड़ी के नीचे पिसनहारी बावड़ी के पास एक समाधि है जो नटनी के नाम से प्रसिद्ध है।

यह नटनी कौन थी ? क्या नाम था उसका ? आज तक पता नहीं लगा। गढ़पहरा के इतिहास में सिर्फ नटनी का ही उल्लेख है। नटनी का एक सहयोगी साथी ढोल वादक भी था जो नटनी के नृत्य के साथ अपना ढोल बजाया करता था। नाटिका में दौनों के नाम बेला और तमाल रखे गये हैं जो काल्पनिक हैं।


बेला नटनी बहुत सुन्दर, अपनी नृत्य कला में पारंगत थी। धरती पर तमाल द्वारा बजायी गयी ढोल की ताल-धुन के साथ रस्सा पर अधर (आकाश में) नटनी बेला का करतब और उसका नाचना एक अद्भुत कला थी।

लोग कहते हैं बेला नटनी की आंखों में जादू था, जो सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। हम उसी कला सौन्दर्य की देवी बेला और जयसिंह की एक प्रेम कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं।

बेला -तमाल---बुन्देली गीत नाटिका

पात्र
1 उद्घोषक
2 गायक मंडली
3 राजा जयसिंह
4 बेला नटनी
5 तमाल ढोल वादक
6 राजा का मन्त्री
7 महारानी
8 महारानी का भाई
9 अन्य रानियां

(समाधि के चारों ओर बैठे हुए ग्रामीण नर नारी ढोलक, खंजड़ी इकतारा, बांसुरी और डमरू बजाकर गा रहे हैं)

     मोरी बेला तमाल।
     रस्सा पे चल रई हंस की चाल।
          मोरी बेला तमाल
हिरनी सी कुंदक रई रे,
चिड़िया सी कुंदक रई रे
ऊपर हवा में ऐसी लगे ऊ,
चंदनियां-छुटक रई रे।
होले-होले संभर कें डोले-
लेबे हिलोरें ऐसो -जैसो मोती ताल।
मोरी बेला तमाल।।

कैसो ढोलक धमका रओ रे,
कैसो नैना मटका रओ रे,
छैल छबीलो तमाल कौ मुखड़ा,
कैसो खूबई मुसका रओ रे।
गर्दन उठा कें, नेंचे सें ऊपर-
देखें रे सब कोऊ जी खों संभाल।
मोरी बेला तमाल।।
जयसिंह खों प्यारी हो गई रे,
राजा की दुलारी हो गई रे।
प्रेम-पियासी, प्रेम दिवानी,
मिसरी सी गुरीरी हो गई रे।
मौसम की धानी ओढ़े चुनरिया-
सब कोऊ के माथे लगा रई गुलाल।
मोरी बेला-तमाल।।
रस्सा पै चल रई हंस की चाल।

उद्घोषक गायन

सागर में हे तीन कोस पे, इक गढ़पहरा किलो बनो।
विन्ध्याचल को ऊंचों परबत, झाड़ी जंगल बड़ो घनो।
उत्तर मोती ताल झील में, मुतियन की छीपें-फूटें।
खोह गुफा में अनगढ़ देवी, दीप जरें नरियल फूटें।

दक्षिण हनुमान की चैकी, लाल पताका लहरावें।
घिरौ कोट, भैंरो कौ पहरा, पूरब गनपति मुसकावें।
शीशा  जड़ों महल अति सुन्दर, शीशमहल ऊ कहलावें।
कर सिंगार सब मिलें रानियां, जयसिंह कौ मन बहलावें।

गौर बरन सुन्दर छैः फुट की , रसिया जयसिंह सुख पावे।
शीशमहल के परदा भीतर, सुरग उतर के आ जावे।
खेले राजा खेल छुआ-छू, रात चांद की छैया में।
बीचों-बीच रानियों के संग-मारे-तीर जुदैया में।

उद्घोषक

राजा अपनी रानियों के साथ खेल-खेलता है और छिटकी हुई चांदनी में चांद की ओर तीर मारता है।
(सभी रानियां मिलजुर कर गाती हैं)

ऐंचना कौ खेंचना, लपेटा की पाग।
सोने का तुर्रा बुन्देलखंड़ी-राज।
कोऊ छू लो, मोरे लाल।
कोऊ छू लो मोरे लाल।।

एक रानी आंखे मीचे, एक पकरे गाल।
एक गावे गीत कोई, एक देवे ताल।
कोऊ छू लो, मोरे लाल।
कोऊ छू लो मोरे लाल।।

तिक-तिक धिन्ना, उचके मन हिन्ना।
इते तो आओ बिन्ना, बजाओ कोनऊं साज।
कोऊ छू लो, मोरे लाल।
कोऊ छू लो मोरे लाल।।

बुन्देलखण्ड में धूम मचाती हुई, अपना नृत्य कमाल दिखाती हुई नटनी बेला और तमाल एक दिन गढ़पहरा में आये।

उद्घोषक गायन

इक दिन सज कें बेला आ गई, गढ़पहरा कौ सुनो हवाल।
घुंघरू की छुम्मक-छुम-छुम पे, ढोल बजा कें हंसे तमाल।
ऊंचें खम्बा, बांध कें रस्सा, नटनी बेला नचन लगी।
आसमान सें बातें होवें, जनता सबरी जुरन लगी।

बुन्देलखंड कौ बड़ो अजूबा, खेल तमाशो जो करतब।
आसमान में नचे नर्तकी, दौर-दौर कें देखे सब।
असमान में घुंघरू छनकें, बेला कौ मन-मुसकावैं।
ब़ड़े नशीले वे तमाल के, इकटक नैंना दुलरावें।

लगे अफसरा जैसी बेला, यौवन सें भरपूर भरी।
ओ के प्रेम भरे सागर की, कोऊ खों नें मिली तरी।
नयना रतनारे-कजरारे, माथे पे बिंदिया-चमके।
खिेल कमल सी, ओठ-पखुरियां, कानों में झूमें झुमके।

चैली कलमी आम सरीखी, लंहगां सौ चुन्नट बारो।
लाज-शरम सकी चुनरी ओढ़े, लगौ डठूला-कजरारो।
बेला की चहुं ओर दुहाई, फिरी नाम सुन्दरता की।
जयसिंह के दरबार में पहुंची, नृत्य कला मादकता की।

उद्घोषक
(तब राज जयसिंह ने अपने प्रधानमंत्री को बुलाकर कहा)

राजा

बेला नटनी बहुतई सुन्दर, हमनें सुनी बड़ाई है।
गढ़पहरा में आकें ऊनें खूबई-घूम मचाई है।
मंत्री जी दरवान भेज कें, बेला नटनी बुलवाओ।
भरी कचहरी बीच चैक में, ऊ कौ करतब दिखलाओ।

मंत्री
जो इच्छा महाराज आप की, बेला अबहिं बुलाऊत हों।
बड़ौ रसीलो, मन भावन सौ, मुखड़ा ऊ दिखलाऊत हों।

उद्घोषक
दरबान, बेला और तमाल को दरबार में ले आता है। राजा जयसिंह बेला की भरी जवानी और उसके सौन्दर्य को देखकर मोहित हो जाता है। तमाल चैक में दो छोरों पर ऊंचे बांस के खम्बे गाड़ता है और बीचों-बीच रस्सा खींचता है तथा ढोल बजाने लगता है और नटनी बेला रस्से पर डोलने लगती है।

उद्घोषक-गायन
इन्दर की परियां शरमावे, लचके कम्मर थिरके ताल।
नट तमाल की धमकें गदियां ढोलक में से उठे उछाल।
छमछम-छमछम बेला नाचे, झूमे ढोल तमाल रे।
सभी सभासद कहें वाह रे, सचमुच बड़ो कमाल रे।

सभी रानियां गुमसुम देखें, बैठ झरोखे के अंदर
बेला की चितवन की जादू, चल गओ राजा के ऊपर
वाह-वाह कर बजा तालियां, मस्ती में राजा झूमें।
मदमाती अपनी नजरों से, बेला की चितवन चूमें।

(और फिर राजा ने बेला को अपने पास बुलाकर कहा-)

संवाद/राजा
ओ मृगनैनी चम्मक चैदस, मोरो प्रेम उजागर हे।
जो मुतियन कौ हार पेर लो, तुम पे जान निछावर हे।

संवाद/बेला
सोनो-चांदी हीरा, मोती, राजई खों शोभा देवें।
मैं गरीबनी अबला नारी, तुमसें का मांग लेवें।
नटकी कौ कां ठौर-ठिकानों, जीवन भर दुख-सहने खों
प्रेम पियारी कहूं मिले बस, चाहत बाखर रहबे खों।

संवाद/राजा
तुलसी जैसो बन कें पौधा, जानें कहां लगा गई हो।
प्रेम पियारी मोरी रानी, मन में आज समां गई हो।
शीशमहल के सम्मुख तुम खों, पार पहाड़ी के ऊपर,
अच्छी-पक्की बाखर दे दई, हंसी खुशी रहबे भीतर।

शीशमहल के सामने उस पार पर्वत पर बनी बाखर में बेला नटनी रहने लगी। प्रातः दुपहर सांझ राजा की नजरें बेला नटनी की बाखर निहारने लगी।

उद्घोषक-गायन
शीशमहल सें देखे राजा, बेला की बाखर न्यारी।
छेहरी दुआरे झांके बेला, ऊंसई-सींजे-फुलवारी।
हाथ झुला टकटकी लगा कें, होन लगी सेनाकारी।
जरीं-भुजीं, गुर्रा कें देखें, इते-उते, छिप कें रानी।
जान गई महरानी किस्सा, राजा काय हंसत नईयां।
लग गये नटनी सें अब नैंना, सो राजा बोलत नईयां।

यह सब जानते हुए एक दिन महारानी जी ने राजा के सम्मुख आकर अपनी पीड़ा व्यक्त की।

संवाद/महारानी
प्रान पियारे, नाथ हमारे, चैन नहीं आवे तुम-बिन।
दूर होत जाऊत हो हम सें, नेह घटत जावे दिन-दिन।
इतनी जल्दी छक गये हम सें, काय हमें टैरत नईयां।
जे नैंना रस के प्यासे हैं, काय तनक हेरत-नइयां।
नटनी सें मन लग गओ इतनों, हम सब माटी कूरा सी।
झार फूंक कें कहूं फंेक दो, ऐसी हो गई धूरा सी।

संवाद/राजा
मैं भौंरा, मनमौजी अपनो, कलियन के ढिग जे हे जो।
बेला जैसी कली कहां हे, ओके बिना नें रेहे-जो।

लगौ रहन देा मन बेला सें, मोरो नेह नहीं टोरो।
तुम सब सों सबरे सुख हें, जियरा काय जरत तोरो।
शीशमहल में कोऊ अब ने, आवे सब सें कह दईयो।
अपने-अपने रनवासों के, दुआरे सब लटका लईयो।

उद्घोषक-गायन
छाती में गढ़को सो खा कें, मन मसोंस कें महारानी।
लौट गई रनिवास में अपनें, अंखियन में भर कें पानी।
एक तरफ बिरहा की आगी, रनिवासों में बरन लगी।
एक तरफ बेला की कलियां, बाखर में से हंसन लगीं।

उद्घोषक
प्रतिवर्षानुसार मंगलवार को आषाढ़ी पूजा का उत्सव दुर्ग के भीतर कचहरी चैक में मनाया गया। जिसमें नटनी बेला का नृत्य विशेष रूप से आकर्षण का केन्द्र था। बंदनवारों, रंगीन आकृतियों एवं लाल पताकाओं से सुसज्जित दुर्ग सभी का मन मोह रहा था। तमाल की ढ़ोलक की गूंज, बेला की घुंघरू की झनक घरती और आकाश को चूमने लगी।

बरसात की पहली फुहार बूंदावारी से बुन्देली माटी की सोंधी सुगन्ध मस्ती बिखेरने लगी।
मौसम की उ़ड़ती धूल गुलाल सी होकर सबके माथे पर अपने आप लगने लगी। सुरा की प्यालियां लिये हुए राजा जयसिंह सिंहासन पर बैठा मस्ती में झूमने लगा। चारों ओर वाह-वाह की ध्वनि गूंजने लगी।

संवाद/राजा
वाह-वाह बेला तुम मोरी, सब कछु हो मन-मंदिर की।
आओ मोरे पास, तुम्हें दऊं सांसें अपने अन्दर की।
मैं तोरो, जा सब कछु तोरो, मांगो तुम्हें चाहने का।
जो तुम कह होऊ में अपनी, आज मिला हों हां में हां।

संवाद/बेला
राजन नेह तुम्हारो मिल गओ, जनम सुफल हो गओ हे।
मैं तोरी तुम मोरे हो गये, बाकी अब का रय गओ हे।

संवाद/राजा
मोरी कसम मांग लो बेला, जो मांगो वो ही देंहों।
धरी खजाने की जा चाबी, बिना दयें कछू नें रयहों।

संवाद/बेला
दर-दर फिरत नचत हों भारी, भीख सरीखी मांगत हों।
गुजर-बसर सों पेट के लाने, रस्सा झोली टांगत हों।
हुकम आप को सिर माथे अब, नई मानत तो बोलत हों।
दे दो आधो राजपाट फिर, रानी बन कें-बैठत हों।

संवाद/राजा
रानी का, पटरानी होकें, बेला राज करोगी तुम।
शीशमहल में उजयारे खों, मन कौ दिया धरोगी तुम।

उद्घोषक
राजा जयसिंह अपने शीशमहल से उस पार पहाड़ी पर देख रहा है। टकटकी लगाये ? ध्यान मग्न होकर, जहां बेला नटनी अपनी बाखर के सामने राजा को इशारा करती हुई अपनी फुलवारी सींच रही है।
( महारानी का प्रवेश)

राजा जू हो का रओं हे, आज रानियां रो रर्ह हें।
बेला नटनी सब के , आगे, पेनें कांटे बो रई हे।
पटरानी होवो चाहत हे, ऐसे भाव बड़े ऊ के।
भिकमंगू नटनी बाजारू, ऐसे दाम बढ़ेऊ के।
नैंन चला कें, रूप दिखा कें, ऊ नें वश मे कर लओ हे।

जादू की झोली में ऊनें, तुमें बांध कें धर लओ हे।

संवाद/राजा
संभल कें बोलो, महारानी तुम, दोष नें दे ओ बेला खों।
बेला जनम-जनम की साथिन, समझो प्रेम-झमेला खों।
प्रेम रंग हम रंग गअे दोऊ, प्रेम बिना जग ऊंसई हे।
ऐसो लगत कै, दो देहों में, एक प्रान हम इकई हें।

संवाद/महारानी (रो रोकर)
प्रेम भरे ई बोलारे खों, तनकई काट-छांट देते।
प्रान पियारे, हम रानिन खों, थोरो जहर बांट देते।
सौंतन हो गई बेला नटनी, करम फूट गओ मोरो रे।
सात भांवरों बारो पक्को, छूट गओ गठजोरो रे।

संवाद/राजा ( क्रोध में आकर)
हम दोऊन खों हसत देख कें, तुम सबरी अब जरन लगीं।
बेला की कुबड़ाई कर कें, अंखियन अंसुआ भरन लगीं।
रोने हे तो जा कें रो लो, रनिवासों में बैठे तुम।
बेर-बेर फिर मोरे आगें, लम्पा सी नें ऐंठो तुम।

उद्घोषक
राजा का आक्रोश सहकर विवश हो-महारानी अर्ज करती है और बेला को पटरानी बनाने के लिए शर्त रखती है।

संवाद/महारानी
अरजी हे महाराज हमारी इतनी सी आनाकानी।
नैंन लड़ा कें, छिप कें बेला, बनवो चाहत पटरानी।
बाजे-गाजे सें मैं आई, डोला में बन कें रानी।
बाजी जीत कें हो जावे अब, नटनी बेला महारानी।
ऊ परबत सें ई परबत लौ, छोड़ धरा अतपर आवे।
बखर सें ऊ शीशमहल लौ, रस्सा पे चल कें जावे।

उद्घोषक
राजा जयसिंह बेला के पास महारानी की लगाई गई शर्त का संदेश भेजता है। नटनी बेला उस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लेती है।
विन्ध्यायल के दो ऊंचे पर्वतों के बीचों बीच चट्टान के एक छोर से दूसरे छोर तक रससा बांध कर खींचा जाता है। नटनी बेला को बाखर से शीशमहल तक आने का यह का यह आकाशी रास्ता उपस्थित जन-समूह में सभी का दिल दहलाने लगता है।

उद्घोषक-गायन
गढ़पहरा में प्रेम पथ कौ, भरो तीसरो मेला रे।
कर सोलह सिंगार पिया खों चली सुहागिन बेला रे।
अपने प्रान निछावर करबे, सिर-माथे धर आई बाती।
सच्ची प्रेम परीक्षा देवे, बेला तुम हो गई-राजी।

फिर तमाल की ढोल-ढमाकी, बजन लगी डिमडिम डिमरू।
मन मुस्का कें, तन थिरका कें, चलन लगी ऊपर घुंघरू।
आधो रस्सा पार हो गओ, महारानी घबरान लगी।
शीशमहल में जा कें सिर धुन, रो-रो कें पछतान लगी।

उद्घोषक
अपना मन बहलाने के लिए महारानी जी पानदान उठाकर पान लगाती हैं। किन्तु यह क्या ? सरौता से सुपानी नहीं कटती। महारानी समझ गई। बेला नटनी जादूगरनी है। उसने आज सभी शस्त्रों की धार बांध दी है। इतने में महारानी का भाई आता है और अपनी म्यान से तलवार निकाल कर कहता है।

संवाद/महारानी का भाई
जो मौका पे काम नें आवे, ऊंसई कौ हे-ऊ-भैया।
धरती पे अब नटनी गिर हे, सब कर हें हा-हा-दैया।
मैं आऊत हों काट कें रस्सा, देख नहीं जीतन देहों।
मोरी बेन नें रोओ अब तुम, हरदम महारानी रेहो।

संवाद/महारानी
ठहरो मोरे प्यारे भैया, रस्सा नें कट हे तुम-सें।
पूरी जादूगरनी नटनी, रूक नें ऊ पाहे तुम सें।
धार बंधी हे हथियारों की,धार नें कोनऊं चल पे हे।
मैं जानत औजार कौन ऊ रस्सा जे सें कट-जे-हे।
तुम चमार की रांपी लिआओ, जे पे चले नें गुन-मंतर।
रस्सा कट-जे-हे-पे-तुम खों, कांटो लगहे नें कंकर।

उद्घोषक
तब महारानी का भाई चमार के घर से रांपी लाता है और रस्सा काटता है। बेला धरती पर गिरती है और लहू-लुहान होकर प्राणहीन हो जाती है।


उद्धोषक
प्राणहीन बेला धरती पे, बिजली जैसी चमक गई।
कोनऊ एक सुरग की देवी, सब के मन में दमक गई।
प्रान नाथ गोदी में ले लो, नभ में गूंजी बानी रे।
हरदम शीशमहल में रय हों, हो कें प्रेम दिवानी रे।
खनक गई हाथों की चुड़ियां, पिया मिलन की दूरी रे।
प्रबत नेचें पथरा उपर, बिखरी मांग-सिन्दूरी रे।
जयसिंह नें गोदी में लेकें, चूम लई बेला रानी।
जैसे सब कछु मिलौ आज, ऐसी बेला मुस्कानी।

उद्घोषक
राजा ने मृत बेला का सिर अपनी गोद में रख लिया और विलाप करता हुआ बोला-

बेला तुम बिन रयहों कैसें, अपनी अंखियां खोला तो।
जो जियरा अब जी हे कैसें, मोरी रानी बोलो तो।
हाय-हाय जो हो का गओ हे, कैसी अनहोनी हो गई।
मोरे आगे, मोरी बेला आज हमेशा खों सो गई।

उद्घोषक
इस तरह राजा का करुण विलाप देखकर राजा का ध्यान बदलने के लिए मंत्री कहता है-

राजन समझ गओ छल की कौ, इकदम बेला लुड़कपरी।
टूट गओ जो कैसें रस्सा, कैसें बेला रिरकपरी।
महारानी हत्यारिन निकरी, रस्सा उनने काटो हे।
बेला को संग नेह छुड़ावे, तुम खों जो दुख बांटो हे।

उद्घोषक
तब राजा गुस्से में आकर भौंहे चढ़ाकर मंत्री को आज्ञा देता है-

संवाद/राजा
हत्यारे खों खूबई बज्जुर-कर्री सजा मिलो चहिये।
सुख कोऊ कौ देख सके नें, ओ सें दूर रहो चहिये।
महारानी खों कैद करो तुम, ओ सें पथरा बिनवा दो।
भूखी, प्यासी रख कें ऊ खों परबर भीतर चिनवा दो।

उद्घोषक
राजा का ध्यान फिर निष्प्राण बेला की ओर जाता है। वह रोने लगता है और भावुक होकर कहता है।

संवाद/राजा (विलाप करता हुआ)

शीशमहल के सम्मुख तोरो, नेह चैतरा बनवा हों।
दिया भरें हों, जोत जरें हों, मन कौ मंदर तनवा हों।
संझा और सकारें रोजई, मन समझावे खों आहों।
जब तक जीहों, तब तक तोरो, मन मंदिर में बतयाहों।

मर जेहों पे संग ने छोड़ों, बरगद बन कें कस ल हों।
तोरी बनी समाधी ऊपर, मैं छाया बन कें रेंहों।
हनुमन-भैरों, अनगढ़ देवी, दुहराहें किस्सा बेला।
हर अषाढ़ के चारों मंगल, प्रेम भरो भर हे मेला।

हीरा, मोती ताल हिलुर है, शीशमहल फिर मुस्का हे।
हम दोऊन की प्रेम कहानी, मेला चलबे.. उसका है।

उद्घोषक
गढ़पहरा का मेला भरा हुआ है। गावों के नर-नारी बेला नटनी की समाधि पर फूल-मालायें चढ़ा रहे हैं तथा ऊदबत्तियां सुलगा कर गा रहे हैं।

मोरी बेला-तमाल।
रस्सा पे चल रई हंस की चाल।

जयसिंह खों प्यारी हो गई रे
राजा की दुलारी हो गई रे।

प्रेम पियासी, प्रेम दिवानी-
मिसरी सी गुरीरी हो गई रे।

मौसम की धानी ओढ़े चुनरिया-
सब कोऊ के माथे लगा रई गुलाल।
मोरी बेला-तमाल।

रस्सा पे चल रई हंस की चाल
मोरी बेला-तमाल।







मै आगत शुक्ल इन फोटोग्राफ के लिए इनका  आभारी  हूँ  धन्यवाद करता हूँ ...

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