Wednesday 13 November 2013

माधव शुक्ल ‘‘मनोज‘‘ के काव्य पर एक दृष्टि लघु शोध प्रबंध-तीन, उपसंहार-अतुल कुमार श्रीवास्तव-सागर


आधुनिक बुन्देली कविता के सन्दर्भ मैं माधव शुक्ल 'मनोज' के काव्य का अनुशीलन

उपसंहार
माधव शुक्ल ‘मनोज’ ने अपने जीवन में संघष के कई रंग देखे है।
    चाणक्य ने लिखा है ः-
        गुणैरूत्तमतां यति नोच्र्चरासन संस्थितः ।
        प्रासादषिरस्धोऽपि काक कं गरूड़ायते ।।
(चाणक्य नीति दर्पण 16.6)
    अर्थात मनुश्य अपने श्रेश्ठ गुणों द्वारा उत्तम हेाता है, ऊॅचे आसन पर बैठने से नहीं । मनोज जी के सन्दर्भ में चाणक्य का उक्त कथन काफी उपयुक्त प्रतीत होता है। ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में स्थाई उपलब्धियॉ उन्होने बिना किसी साधन के स्वतः ही अर्जित की है।

    काव्य रचना भाव संप्रेशण की एक ऐसी सषक्त विधा है, जिसके माध्यम से कवि अपने मनोभावों को बड़े अच्छे ढंग से व्यक्त कर सकता है। मनोज जी की एक बड़ी विषेशता है, कि उन्होंने अपने लोक को नहीं त्यागा, वे अपनी जड़ों से जुड़े रहें है। हम अपनी परंपरायें, रीति रिवाज, लोक संगीत, घर, परिवार को छोड़ कर जीवन में सफलता तो पा सकते हैं किन्तु वह जीवन सार्थक कहा जाय, इसमें संदेह हैं।
सागर विस्वविद्यालय लायब्रेरी 
    हम देखें तो माधव शुक्ल‘मनोज’ की कवितायें लोक की वंदिष में बंधी हैं। वे 1947 से कवितायें लिख रहे हैं। और अभी भी सृजनरत सक्रिय है। उनका समूचा काव्य सृजन ग्राम्यानुभूति में डूबा हुआ है। गॉवों की पीड़ा उनके सुख-दुख और साहस को उन्होंने बहुत निकट से देखा हे। केवल दृष्य ही नहीं ग्राम जीवन की समूची गतिविधियॉ उनकी कविता में स्थान पा गई है।
    मनोज जी बुन्देली और खड़ी बोली के जन कवि हैं, वे आधुनिक बुन्देली कवियों में लोकप्रिय और अग्रणी है। मध्यप्रदेष साहित्य परिशद्, भोपाल के ‘‘ईसुरी’’ पुरस्कार से सम्मानित कवि मनोज ने, मध्यप्रदेष के सागर जिलें में देहातों में एक आदर्ष शिक्षक की भूमिका भी निभाई और उन्हें भारत के राश्ट्रपति ने आदर्ष षिक्षक और जागरूक कवि के रूप में सम्मानित किया। उनकी लगभग तेरह चैदह पुस्तकें  प्रकाषित हुई है। उन्होंने बुन्देलखड के लेाक नृत्य ‘‘राई’’ पर मोनोग्राफ लिखा। वे विन्यास मासिक पत्रिका का सफल संपादन भी कर चुके हे। मनोज जी ने सत्र 1964 में पंडित जवाहर लाल नेहरू की वसीयत का बुन्देली में काव्यानुवाद भी किया। बंगलादेष के युद्ध के समय ‘‘सोनार बंगलादेष’’ नामक काव्य पुस्तक का संपादन कर गॉवों, कस्बों में कविता यात्रा के माध्यम से राश्ट्रीय एकता यात्रा दल के साथ अनेक रचनात्मक कार्य भी किये हैं ।
    उन्होंने बुदेली में मंचित कालिदास के नाटक ‘‘मालविकाग्निमित्र’’ निर्देषक बाबा कांरत और स्पेन के प्रसिद्ध नाटककार लोर्का के नाटक ‘‘यरमा’’ - निर्देषक विभा मिश्रा के लिये बुदेली  गीत भी लिखे हैं। वे मध्यप्रदेष आदिवासी लोक कला परिशद् भोपाल की कार्यकारिणी सभा के सदस्य और आकाषवाणी छतरपुर आदि साहित्य कला संस्थाओं के सलाहकार ज्यूरी रह चुके है।
    कवि माधव “ाुक्ल मनोज की कविता में गॉवों की पूरी दिनचर्या के दर्षन होते हैं, सुबह-सुबह गोरस की मटकी में मथानी के गीत से लेकर आधी रात को फूलते बेला के फूलों की महक तक ले जाने वाली उनकी कविताओं में गॉवों की वह छोटी सी रामकहानी भी है, जहॉ मेहतन और मसक्कत  की जिंदगी जीते हुए आॅगन में कंगना खनकाती राम दुलैया नाचती हैं। इन सब के साथ वे कीचड़ में बोलते@ नदियों में डोलते@ गॉवों के छपर-छपर, पॉवों की आहट भी सुनते है। इस तरह उनकी कवितायें जीवन के आभावों में भी आनंद का संचार करती है।  विद्वान समीक्षक रामरतन भटनाकर ने मनोज जी की पुस्तक ‘‘ भोर के साथी’’ की भूमिका में लिखते हुए कहा है ‘‘ काव्य रसिकों को मनोज की रचनाओं में खड़ी बोली का खुला स्वर मिलेगा। जो पन्त की ‘‘ग्राम्या’’ से आगे बड़ती हुई हमारी काव्य धारा गॉवों के ओर छोर कहॉ पहुॅच गई है। यह वह अच्छी तरह से जान सकेंगे आज की नयी कविता के दौर में यह लोक से रंगी विधा लोक “ौली की कविता अपनाई जाने लगी है।
    मनोज जी की रचना धर्मिता को रेखांकित करते हुए त्रिलोचन शास्त्री ने कहा है ‘‘ वे बुन्देली के मौलिक कवि है, यह और प्रसन्नता की बात हैं कि वे बुन्देली कविता में आधुनिक हिन्दी के भावों से भिन्न स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करते हैं। वस्तुतः कविता में शुक्ल की यही वह जगह है, जहॉ उनको अन्तिम रूप से होना है। आधुनिक हिंदी की कविताओं के समकक्ष जहॉ बुन्देली कविता को स्थापित करते है, वहीं अपने जनपद के प्रतिनिधित्व कवि के रूप में उभरते है। प्रयोगषीलता, आधुनिकत भाव बोध नवीन शैली-भाव, जातीय बिम्ब, विधान, और खॉटी बुन्देली भाशा के शब्द संसार ने उन्हें जो पहचान दी है, वह अलग से रेखंाकनीय है। विशयवस्तु की दृश्टि से उनकी कविता में समूचा बुन्देलखण्ड हैं, अपने यथार्थ के साथ। एक गहन लय में पगी ये रचनाए पारम्परिक लोक धुनों से प्रस्थान भी करती है। रागात्मकता के अलावा बुन्देली ठसक का व्यंग और ललित हास्य इन कविताओं में देखते बनता है यथा - ‘‘अपनी धुन’’ में भूले, देखों फुकना से फूले’’
    तेज गति से होने वाले विकास के युग में विकलांग अनुभूति ओर बौद्धिकता पष्चिमी चष्मा पहिने काव्य वृत्ति जब आज साहित्य का आधार बनने का स्वरूप रचती है। तब ऐसे वातावरण में माधव शुक्ल मनोज जैसे अन्वेशी कवि की कवितायें पढ़ना उन्हें सुनना, गुनना अति आवष्यक हो जाता है। उनकी कविताओं ने मूक ग्रामीण जन जीवन को वाणी दी है, उनके सुख-दुख, दीन-हीन विवष स्थितियों परिस्थितियों को गॉवों में रह कर, पगडंडियों पर चल कर जाना समझा । अतः यह कहने में जरा भी अतिष्योक्ति न होगी कि मनोज जी की कवितायें, ग्रामीण जीवन की अनुभूतियों की गीता है। मनोज जी ने काव्य रचना को बुन्देली में वह स्तर दिया हैं जो अनुभूति चेतन कवि ही दे सकता हैं।
    अंत में मै यही कह सकता हॅू कि, ईसुरी, गंगाधर व्यास और ख्यालीराम तो अब नहीं है। किन्तु उनकी परम्परा के जो भाशित बिन्दु “ोश है। और इस परम्परा की कड़ी को कभी विष्लेशित किया गया तो उसमें माधव “ाुक्ल ‘‘मनोज’’ का नाम अवष्य होगा।

No comments: